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पंचम अध्ययन, उद्देशक 6
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• आवश्यक है। अभिनव कर्मों के आगमन को रोके बिना ज्ञानादि का विकास नहीं हो सकता। इसके लिए साधक संयम-दीक्षा को स्वीकार करता है। संयम के द्वारा कर्मों का आगमन रोकता है और निर्जरा के द्वारा पूर्व आबद्ध कर्मों का क्षय करता है। इस तरह चार घातिक-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोह और अन्तराय कर्म का क्षय करके सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी बनता है। इस तरह संयम-साधना से राग-द्वेष का क्षय करके वीतराग अवस्था को प्राप्त होता है। फिर उसके मन में किसी तरह की आकांक्षा नहीं रह जाती है। वह समस्त इच्छा-आकांक्षाओं से रहित होकर अपने आत्मस्वरूप में रमण करता है। उस के ज्ञान में सब कुछ स्पष्ट रहता है। संसार का कोई भी पदार्थ उससे प्रच्छन्न नहीं रहता। ऐसे महापुरुष को प्रस्तुत सूत्र में वेदवित् एवं अकर्मा कहा गया है। . इस तरह संसार परिभ्रमण के कारणों का उन्मूलन करने से उसे किस फल की प्राप्ति होती है, इस विषय का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं
" मूलम्-अच्चेइ जाईमरणस्स वट्टमग्गं विक्खायरए, सब्वे सरा नियट्टति, तक्का जत्थ न विज्जइ, मई तत्थ न गाहिया, ओए, अप्पइट्ठाणस्स खेयन्ने, से न दीहे न हस्से न वट्टे न तंसे न चउरंसे न परिमंडले न किण्हे न नीले न लोहिए न हालिदे न सुक्किल्ले न सुरभिगंधे न दुरभिगंधे न तित्ते न कडुए न कसाए न अंबिले न महुरे न कक्खडे न मउए न गरुए न लहुए न उण्हे न सीए न निद्धे न लुक्खे न काऊ न रुहे न संगे न इत्थी न पुरिसे न अन्नहा परिन्ने सन्ने अवमा न विज्जए, अरूवी सत्ता, अपयस्स पयं नत्थि॥171॥ ___ छाया-अत्येति जातिमरणस्य वर्त्तमार्गं व्याख्यातरतः सर्वेस्वराः निवर्तन्ते तर्को यत्र न विद्यते, मतिस्तत्र न ग्राहिका, ओजः अप्रतिष्ठानस्य खेदज्ञः स न दीर्घो न ह्रस्वो न वृत्तो न व्यस्रो न चतुरस्रो न परिमंडलो न कृष्णो न नीलो न लोहितो न हारिद्रो न शुक्लो न सुरभिगन्धो न दुरभिगन्धो न तिक्तो न कटुको न कषायो नामलो न मधुरो न कर्कशो न मृदुर्न लघुर्न गुरुर्न शीतो न उष्णो न स्निग्धो न रुक्षो न कायवान् न रुहो न संगो न स्त्री, न पुरुषो न