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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
मूलम्-आवट्टं तु पेहाए इत्थ विरमिज्ज, वेयवी, विणइत्तु सोयं निक्खम्म एसमहं अकम्मा जाणइ पासइ पडिलेहाए नावकखइ इह आगई गई परिण्णा ॥170॥
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छाया - आवर्त्त तु उत्प्रेक्ष्य अत्र विरमेत् वेदवित् विनेत्तुं स्रोतः निष्क्रम्य एष महान् अकर्म्मा जानाति पश्यति प्रत्युत्प्रेक्ष्य नाकांक्षति इह आगतिं गतिं परिज्ञाय ।
पदार्थ -तु-वितर्क अर्थ में । आवट्टं - राग-द्वेष और विषय रूप आवर्त्त में। पेहाए - विचार कर । इत्थ - इस आवर्त्त विषयक | मेहावी - आगम के जानने वाला । विरमज्ज - निवृत्ति करे | सोयं - स्रोत के । विणइत्तु - दूर करने के लिए। निक्खम्म - दीक्षा लेकर, पुरुषार्थ - प्रयास करे। एस - यह प्रत्यक्ष | महं - महापुरुष । अकम्मा - चार घातिकर्मों से रहित होने पर । जाणइ - विशेष रूप से जानता है । पासइ - सामान्य रूप से देखता है किन्तु, फिर । पडिलेहाए - पदार्थों के स्वरूप को जानकर - अर्थात् प्रतिलेखन कर । नावकखइ - सत्कारादि की अभिलाषा नहीं करता । इह - इस मनुष्य लोक में। आगइं–प्राणियों का आगति - आगमन । गईं- गति - गमन को । पड़िलेहाएपर्यालोचन करके, परिन्नाय - संसार के कारण को ज्ञान से जानकर प्रत्याख्यान से त्यागकर संसार से विमुक्त हो जाता है ।
मूलार्थ-वेदवित्-ज्ञानवान् पुरुष, संसार के कारणभूत भाव स्रोत का विचार कर उसे छोड़ देता है । भाव स्रोत को दूर करने के लिए ही दीक्षा ग्रहण करता है, अर्थात् प्रव्रज्या के द्वारा भाव स्रोत का निरोध करता है। यह महापुरुष चार प्रकार के :. घातिकर्मों का क्षय करके संसारवर्ती पदार्थों को जानता और देखता है- विशेष रूप से जानता और सामान्य रूप से देखता है । फिर वह किसी प्रकार के मान- सत्कार की इच्छा नहीं करता, किन्तु इस लोकवर्ती जीवों के गमनागमन को देखकर और उनके मूल कारणों को जानकर, उनका निराकरण करता है।
हिन्दी - विवेचन
आत्मा में स्थित अनन्त चतुष्ट्य - 1 - अनंन्त ज्ञान, 2 – अनन्त दर्शन, 3 – अनन्त शक्ति और 4-अनन्त सुख को प्राप्त करने के लिए पहले कर्म स्रोत को रोकना