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पंचम अध्ययन, उद्देशक 6
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पदार्थ-सोया-कर्म आने के मार्ग। उड्ढे-ऊर्ध्व लोक में वैमानिक देवों में विषय वासना रूप हैं। अहे-नीचे के लोक में-भवनपति आदि देवों में। सोयाविषय-वासना आदि रूप कर्म स्रोत हैं। तिरियं सोया-तिर्यक्-व्यन्तर और मनुष्यादि में विषय-वासना रूप कर्म स्रोत। वियाहिया-कथन किए हैं। तथा ऊंचे पवादि में, नीचे-गुफा आदि में और तिर्यक् आरामादि में कर्म स्रोत कथन किए गए हैं। एए-ये। सोया-स्रोत। विअक्खाया-वर्णन किए गए हैं। जेहिं-जिनके। संगतिसंग से प्राणी पापकर्म में प्रवृत्त हो रहे हैं, इति शब्द हेतु अर्थ में आया हुआ है।
मूलार्थ-ऊंची दिशा में, नीची दिशा में और तिर्यक् दिशा में कर्मस्रोत-विषय वासना रूप-वर्णन किए गए हैं। वर्णन किए गए इन कर्मस्रोतों को हे शिष्यो! तुम देखो! इन कर्मस्रोतों के संग से प्राणी पाप कर्मों में प्रवृत्त हो रहे हैं। हिन्दी-विवेचन -संयम का विशुद्ध पालन करने के लिए साधक को आस्रव द्वार-कर्म आगमन के स्रोत से भली-भांति परिचित होना चाहिए। कर्मबन्ध के कारण को जानने वाला साधक उनसे बच सकता है। परन्तु जो उनके यथार्थ स्वरूप को नहीं जानता है, वह कर्मबन्ध के प्रवाह में बह जाता है। अतः उससे बचने के लिए साधक को सबसे पहले आस्रव द्वार को रोकना चाहिए। - आगम में आठ प्रकार के कर्म बताए गए हैं। परन्तु, इन सबमें मोह कर्म की प्रधानता है। यह दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय के भेद से दो प्रकार का है और सम्यग्दर्शन एवं चारित्र को आवृत रखता है। इसके उदय से जीव विषय-वासना में संलग्न रहता है और परिणामस्वरूप पाप कर्म का बन्ध करके संसार में परिभ्रमण करता रहता है। इसी कारण मोह कर्म को कर्म का स्रोत कहा है। यह ऊर्ध्व, अधो एवं मध्य लोक में सर्वत्र फैला हुआ है। तीनों लोकों में स्थित जीव इसी कर्म के उदय से विषय-वासना एवं आरम्भ-समारम्भ में प्रवृत्त होते हैं और उससे पाप कर्म का बन्ध करके संसार में भटकते फिरते हैं। अतः संयमनिष्ठ साधक को बार-बार विषय-वासना से निवृत्त होकर साधना में संलग्न रहने का उपदेश दिया जाता है।
इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं