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________________ 634 • श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध मिथ्यावाद का निराकरण करे, फिर। इह-इस मनुष्यलोक में। आराम-आराम-संयम स्थान को (जानकर) स्वीकार करके। अल्लीणे गुत्ते-जितेन्द्रिय होकर। परिव्वए-सर्व प्रकार से संयमानुष्ठान में विचरे। निट्ठियठी-मोक्षार्थी। वीरे-कर्म विदारण में समर्थ-वीर। आगमेण-सर्वज्ञ प्रणीत आचार द्वारा। सया-सदा। परक्कमे-मोक्ष मार्ग में पराक्रम करे। ____ मूलार्थ-बुद्धिमान साधु भगवदुपदेश का उल्लंघन न करे तथा सम्यक् एवं सर्वप्रकार के सामान्य और विशेष रूप से पदार्थों के स्वरूप को जानकर परवादमिथ्यावाद का निराकरण करे, और इस मनुष्यलोक में, आराम-संयम को स्वीकार करके जितेन्द्रिय होकर विचरे, तथा मोक्षार्थी कर्म विदारण में समर्थ सदा सर्वज्ञ-प्रणीत आचार द्वारा मोक्षमार्ग में पराक्रम करे। हिन्दी-विवेचन हम यह देख चुके हैं कि आत्मविकास का मूल सम्यक्त्व-श्रद्धा है। जब साधक को सर्वज्ञ प्रणीत आगम पर श्रद्धा-निष्ठा होती है, तो वह उस उपदेश को जीवन में स्वीकार कर सकता है। फिर भी, किसी भी स्थिति में आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकता और श्रुतज्ञान के द्वारा हेय-उपादेय के स्वरूप को जानकर हेय पदार्थों का त्याग करके उपादेय को स्वीकार करता है। इस प्रकार वह आरम्भ-समारम्भ से मुक्त होकर संयम-साधना में संलग्न होता है। ___ संयम-साधना में वही संलग्न होता है, जिसके मन में कर्मों से सर्वथा, मुक्त होने की अभिलाषा है। मोक्षार्थी व्यक्ति इस बात को भली-भांति जानता है कि आरम्भ-समारम्भ, विषय-भोग में आसक्ति आदि संसार परिभ्रमण के कारण हैं और इनमें संलग्न व्यक्ति का मन सदा अशान्त रहता है। इसलिए पूर्ण समाधि एवं शान्ति का इच्छुक व्यक्ति ही संयम का परिपालन कर सकता है। इस उपदेश की आवश्यकता का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- उड्ढं सोया अहे सोया, तिरियं सोया वियाहिया। एए सोया विअक्खाया, जेहिं संगति पासह॥13॥ छाया-ऊर्ध्व श्रोतांसि अधः श्रोताँसि तिर्यक् श्रोतांसि, व्याहितानि, एतानि श्रोतांसि व्याख्यातानि, यैः संगमिति पश्यत।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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