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पंचम अध्ययन : लोकसार
षष्ठ उद्देशक
पंचम उद्देशक में आचार्य को जलाशय के समान बताया गया है। जलाशय के समीप रहने वाले, अर्थात् रत्नत्रय से सम्पन्न आचार्य के सान्निध्य में रहने वाले शिष्य रत्नत्रय को प्राप्त करके संयम-साधना में संलग्न रहते हैं और उसके द्वारा पूर्ण शान्ति को प्राप्त करते हैं। प्रस्तुत उद्देशक में शिष्यों के जीवन का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-अणाणाए एगे सोवट्ठाणा, आणाए एगे निरुवट्ठाणा एयं ते मा होउ, एयं कुसलस्स दंसणं, तद्दिट्ठीए, तम्मुत्तीए, तप्पुरक्कारे, तस्सन्नी, तन्निवेसणे॥167॥
छाया-अनाज्ञया एके सोपस्थानाः आज्ञायामेके निरुपस्थानाः अयं ते माभूत्, एतत् कुशलस्यदर्शनं तदृष्टिः, तनमुक्तिः , तत्पुरस्कारः, तत्संज्ञी, तन्निवेशनः। ___ पदार्थ-एगे-कई एक व्यक्ति। अणाणाए-जिनेश्वर भगवान की आज्ञा के बिना। सोवट्ठाणा-कुमार्ग पर चल रहे हैं। एगे-कई एक व्यक्ति। आणाए-भगवान की आज्ञा में। निरुवट्ठाणा-पुरुषार्थ नहीं करते। एयं-ये दोनों-कुमार्ग में पुरुषार्थ
और सन्मार्ग में आलस्य। ते मा होउ-तुम्हारे में न हों। एयं-ऐसा। कुसलस्सतीर्थंकर भगवान का। दंसणं-दर्शन-मन्तव्य है, उनका आदेश है कि। तद्दिट्ठिएशिष्य को आगम एवं आचार्य की दृष्टि-आज्ञा के अनुसार कार्य करना चाहिए। सम्मुत्तीए-आचार्य की आज्ञा के अनुसार करना चाहिए। तस्सन्नी-आचार्य की भांति सदा ज्ञान में संलग्न रहना चाहिए। तन्निवेसणे-शिष्य को सदा आचार्य एवं गुरु के सान्निध्य में रहना चाहिए।
'मूलार्थ-कुछ लोग भगवान की आज्ञा के विपरीत कुमार्ग पर चलते हैं। कुछ