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पंचम अध्ययन, उद्देशक 6
साधक भगवान की आज्ञा का परिपालन करने में आलस्य करते हैं । परन्तु जिनेश्वर भगवान का आदेश है कि साधक के जीवन में ये दोनों दोष- कुमार्ग में पुरुषार्थ एवं सन्मार्ग में आलस्य न रहे । विनीत शिष्य को इन दोषों का त्याग करके गुरु की दृष्टि- - आज्ञा से उनके समान निर्लोभ वृत्ति से संयम का पालन करना चाहिए । आचार्य एवं गुरु की तरह सदा ज्ञान-साधना में संलग्न रहना चाहिए और प्रत्येक कार्य उनकी आज्ञा से करना चाहिए । शिष्य को सदा आचार्य एवं गुरु के सान्निध्य में रहना चाहिए ।
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हिन्दी - विवेचन
आगम में विनय को धर्म का मूल कहा है । विनय के अभाव में जीवन में धर्म का उदय नहीं हो सकता और विनय की आराधना आज्ञा में है। इसलिए आगम में कहा गया है कि आज्ञा का पालन करने में धर्म है। यही बात प्रस्तुत सूत्र में बताई गई है कि जो व्यक्ति आगम एवं आचार्य की आज्ञा के अनुसार प्रवृत्ति करता है, वह • आत्मा का विकास करते हुए एक दिन अपने साध्य को सिद्ध कर लेता है और जो व्यक्ति वीतरागं प्रभु की आज्ञा के विपरीत मार्ग पर चलता है, उनकी आज्ञा के अनुसार आचरण करने में आलस्य करता है वह व्यक्ति संसार में परिभ्रमण करता है । अतः विनीत शिष्य को उक्त दोनों दोषों का त्याग करके सदा तीर्थंकर भगवान एवं उनके शासन के संचालक आचार्य की आज्ञा के अनुसार प्रवृत्ति करनी चाहिए। उसे सदा ज्ञान-साधना एवं संयमपालन में संलग्न रहना चाहिए और उसे प्रत्येक कार्य आचार्य की आज्ञा लेकर ही करना चाहिए ।
इस तरह के आचरण से साधक के जीवन में किस गुण का विकास होता है, इस सम्बन्ध में सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-अभिभूय अदक्खू अणभिभूए पभू निरालंवणयाए जे महं अबहिमणे, पवाएण पवायं जाणिज्जा, सहमंमइयाए परवागरणेणं अन्नेसिं वा अंतिए सुच्चा॥168॥
छाया - अभिभूय अद्राक्षीत् अनभिभूतः प्रभुः निरालम्बतायाः य महान् अबहिर्मनाः प्रवादेन प्रवादं जानीयात् सह सन्मत्या परव्याकरणेन अन्येषां वा अन्तिके श्रुत्वा ।