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पंचम अध्ययन, उद्देशक 5 दुःख से बचना चाहता है। अतः इस सिद्धांत को जानने वाला साधक किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करेगा। क्योंकि वह जानता है कि किसी प्राणी का वध करते समय अध्यवसायों-परिणामों में क्रूरता रहती है और भावों की मलिनता के फलस्वरूप पाप कर्म का बन्ध होता है और आत्मा पतन के महागर्त में जा गिरती है। आत्मा का पतन होना भी एक प्रकार से मृत्यु ही है। मृत्यु के समय दुःखानुभूति होती है और हिंसक प्रवृत्ति से भी दुःख परम्परा में अभिवृद्धि होती है। इससे जन्म-मरण का प्रवाह बढ़ता है। इस प्रकार मरने वाले प्राणी के अहित के साथ मारने वाले प्राणी का भी अहित होता " है। वह पाप कर्म से बोझिल होकर संसार में परिभ्रमण करता है। अतः यही उसकी
मृत्यु है। इसलिए साधक को यह समझकर, जिसे मैं मार रहा हूँ; वह मैं ही हूँ, यह उस प्राणी की नहीं, मेरी अपनी ही हिंसा है, हिंसा से निवृत्त होना चाहिए।
उसे अपने आत्म ज्ञान से सब प्राणियों के स्वरूप को समझ कर हिंसा से निवृत्त रहना चाहिए, क्योंकि जो आत्मा है वही विज्ञाता है, अन्य नहीं। कुछ विचारक आत्मा को ज्ञान से भिन्न मानते हैं। उन्हें संशय है कि आत्मा और ज्ञान एक कैसे हो सकते हैं? इसी संशय का निवारण करते हुए सूत्रकार कहते हैं. मूलम्-जे आया से विन्नाया, जे विन्नाया से आया। जेण
वियाणइ से आया तं पडुच्च पडिसंखाए, एस आयावाई समियाए 'परियाए वियाहिए, त्तिबेमि॥166॥
छाया-यः आत्मा स विज्ञाता, यः विज्ञाता स आत्मा येन विजानाति स आत्मा तं प्रतीत्य प्रतिसंख्यायते एष आत्मवादी सम्यक्तया पर्यायः व्याख्यातः इति ब्रवीमि।
पदार्थ-जे-जो। आया-आत्मा है। से-वह। विन्नाया-विज्ञाता है। जे-जो। विन्नाया-विज्ञाता है। से-वह। आया-आत्मा है। जेण-जिससे-मत्यादि ज्ञान से। वियाणइ-जानता है। से-वह। आया-आत्मा है। तं पडुच्च-उस ज्ञान परिणाम के आश्रय से। पडिसंखाए-आत्मा कहा जाता है, अर्थात् आत्मा व्यपदेश ज्ञान सापेक्ष है। एस-यह अनन्तरोक्त। आयावाई-आत्मवादी कहा जाता है, तथा। समियाए-सम्यग् भाव से वा शमिता से। परियाए-संयम पर्याय। वियाहिएवर्णन किया गया है। त्तिबेमि-इस प्रकार मैं कहता हूँ।