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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
वाला साधु। पडिबुद्ध-जीवी-ज्ञान युक्त जीवन व्यतीत करने वाला, अर्थात् प्रत्येक जीव को अपने आत्मा के समान जानने वाला। तम्हा-इसलिए। न हंता-स्वयं जीव को न हने। नवि घायए-और न दूसरे से घात करावे तथा न इसकी अनुमोदना करे। अप्पाणं-आत्मा को हिंसादि कर्मों का। अणुसंवेयणं-अनुसंवेदन अर्थात् हिंसादि व्यापार जनित दुःख का अनुभव करना पड़ेगा, इसी प्रकार की विचारणा करता हुआ। जं-जो कोई भी मारने आदि के भाव हैं अथवा हिंसा रूप-सावद्य क्रियाएं हैं, उनकी। नाभिपत्थए-प्रार्थना न करे। ___ मूलार्थ-जिस को तू मारना चाहता है, वह तू ही है! जिसको तू आदेश देना. चाहता है, वह तू ही है; जिसको तू परितापना देना चाहता है, वह तू ही है; जिसको तू पकड़ना चाहता है, वह तू ही है; जिसको तू प्राणों से वियुक्त करना चाहता है, वह तू ही है। ऋजुप्राज्ञ साधु प्रतिबुद्ध जीवन व्यतीत करने वाला, अर्थात् ज्ञान युक्त जीवन व्यतीत करने वाला होता है। इसलिए किसी भी जीव को न मारे, और न. मारने की प्रेरणा. करे, तथा मारने वाले को इस सावध क्रिया का अनुमोदन भी न करे, किन्तु इस प्रकार के भाव रक्खे कि यदि मुझसे किसी प्रकार की हिंसा हो गई तो उसके कटु फल का अनुभव मुझे अवश्य करना पड़ेगा। अतः किसी भी जीव को मारने की प्रार्थना न करे, अर्थात् न मारे। हिन्दी-विवेचन
यह हम देख चुके हैं कि सम्यग् एवं मिथ्यादृष्टि की क्रिया में अन्तर रहता है। जिस साधक के जीवन में सम्यक्त्व का प्रकाश होता है, वह प्रत्येक कार्य विवेक एवं उपयोग पूर्वक करता है। क्योंकि वह प्रत्येक प्राणी को अपनी आत्मा के समान समझता है। परन्तु मिथ्यादृष्टि में विवेक का अभाव होता है। उसके जीवन में अपना स्वार्थ ही सर्वोपरि होता है, अतः वह दूसरे के दुःख-सुख को नहीं देखता, इसलिए प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि दूसरे प्राणी की हिंसा करना अपनी हिंसा करना है, क्योंकि जिसे तू मारना चाहता है, अपने अधीन रखना चाहता है, परिताप देना चाहता है, वह तू ही है।
इसका तात्पर्य यह है कि सब प्राणियों की आत्मा आत्मद्रव्य की अपेक्षा से समान है। सबको सुख-दुःख का समान संवेदन होता है और प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है, .