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पंचम अध्ययन, उद्देशक 5
625 · है। अभिनव रूप से पाप कर्म का बन्ध नहीं होता, परन्तु श्रद्धाहीन व्यक्ति रात-दिन पाप कर्म का बन्ध करता है। अतः साधक को मिथ्यादृष्टि एवं संशय का त्याग करके जिन वचनों पर पूर्ण श्रद्धा रखनी चाहिए।
यह नितान्त सत्य है कि पाप कर्म का बन्ध अध्यवसाय के अनुसार होता है। श्रद्धाहीन व्यक्ति के अध्यवसाय सदा आरंभ-समारंभ में लगे रहते हैं, अतः वह सदा हिंसा आदि दोषों में संलग्न रहता है और उससे पाप कर्म का बन्ध करता है, इसी बात को बताते हुए सूत्रकार कहते हैं__ मूलम्-तुमंसि नाम सच्चेवं जं हंतव्वंति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं अज्जावेयव्वंति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं परियावेयव्वंति मन्नसि, एवं जं परिघित्तव्वंति मन्नसि, जं उद्दवेयंति मन्नसि अंजू चेय पडिबुद्धजीवी, तम्हा न हंता नवि घायए, अणुसंवेयणमप्पाणेणं जं हंतव्यं नाभिपत्थए॥165॥
छाया-त्वमेव नाम स एव यं हन्तव्यमिति मन्यसे, त्वमेव ना स एव यमाज्ञापयितव्यमिति मन्यसे, त्वमेव नाम स यं परितापयितव्यमिति मन्यसे एवं यं परिगृहीतव्यमिति मन्यसे, यमपद्रापयितव्यमिति मन्यसे, ऋजुश्चैतस्य प्रतिबुद्धजीवी तस्मान्न हंता नापि घातयेत् अनुसंवेदनमात्मना यद् हन्तव्यं नाभिप्रार्थयेत्। -पदार्थ-नाम-संभावना अर्थ में है। च-और। एव-शब्द अवधारण अर्थ में है। जं-जिसको तू। हंतव्वंति-मारना। मन्नसि-चाहता है। स-वह। तुमंसि-तू ही है। नाम-संभावना। च एव-पूर्ववत् । जं-जिसको तू। अज्जावेयव्वंति-आज्ञा में प्रवर्त्ताना। मन्नसि-चाहता है। स-वह। तुमंसि-तू ही है। नाम और च एवं पूर्ववत्। जं-जिसको तू। परियावेयव्वंति-परितापना देनी। मन्नसि-चाहता है। स-वह। तुमंसि-तू ही है अथवा जिसे तू परिगृहीतव्य-पकड़ना चाहता है वह तू ही है। एवं-इस प्रकार। जं-जिसको तू। परिघित्तव्बंति-पकड़ना। मन्नसि-चाहता है वह तू ही है। जं-जिसको। उद्दवेयंति-प्राणों से वियुक्त करना। मन्नसि-चाहता है वह तू ही है। च-पुनः। एय-यह पूर्वोक्त विषय जानकर। अजू-सरल वृत्ति