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________________ 624 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध का आवरण आ जाने से दृष्टि मन्द पड़ जाती है, उसी तरह दर्शनमोह कर्म के उदय से आत्मा के स्वगुणों पर परदा-सा पड़ जाता है और उस कर्म-आवरण के कारण आत्मा पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को नहीं जान पाता। इससे स्पष्ट हो गया कि दुनिया में दो तरह की दृष्टियां हैं-एक दर्शनमोह के आवरण से अनावृत और दूसरी है आवृत। इन्हें आगम में सम्यग् एवं मिथ्या दर्शन या मिथ्या दृष्टि कहते हैं। संसार की चारों गतियों में दोनों के जीव पाए जाते हैं। परन्तु आत्मा का विकास एवं अभ्युदय सम्यग्दृष्टि से ही होता है। इसलिए जीवन में सम्यक्त्व को अधिक महत्त्व दिया गया है। सम्यक्त्व भी क्षायिक, औपशमिक और क्षायोपशमिक के भेद से तीन तरह का होता है। जीवन में क्षायिक सम्यक्त्व आने के बाद वह सदा बना रहता है, परन्तु शेष दो तरह का सम्यक्त्व सदा एक-सा नहीं रहता है। उसमें विचारों की तरंगों के अनुसार उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। इसी बात को प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है। कुछ व्यक्ति जिस निष्ठा के साथ दीक्षा लते हैं, उनकी वही श्रद्धा-निष्ठा अन्त तक बनी रहती है और उनकी निष्ठा में तेजस्विता आती रहती है, परन्तु उसका प्रकाश धूमिल नहीं पड़ता। कुछ व्यक्ति दीक्षा के समय निर्मल सम्यक्त्व वाले होते हैं, परन्तु दीक्षित होने के बाद दर्शन मोह के उदय से श्रद्धा से गिर जाते हैं। कुछ साधक दीक्षित होते समय संशयशील होते हैं, परन्तु बाद में उनका सम्यक्त्व निर्मल हो जाता है। कुछ साधक दीक्षा ग्रहण करते समय एवं बाद में संशयशील या सम्यक्त्व-रहित बने रहते हैं। इसी तरह अन्य भंगों के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए। ___ जीवों के कार्यों के भेद इन्हीं दो दृष्टियों के आधार पर किए गए हैं। मिथ्यादृष्टि की क्रिया मिथ्या कहलाती है, तो सम्यग्दृष्टि की क्रिया सम्यक् कहलाती है और इसी सम्यक् क्रिया से आत्मा का विकास होता है। सम्यक् भाव से अन्वेषण करने पर पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को देखा एवं जाना जा सकता है। अतः साधक को जीवन में श्रद्धा एवं निष्ठा को बनाए रखना चाहिए और उसे प्रत्येक पदार्थ को सम्यग् दृष्टि से देखना चाहिए। ____ इसके अतिरिक्त साधक को सम्यग्दृष्टि एवं मिथ्यादृष्टि के अन्तर को समझ कर अपनी श्रद्धा-निष्ठा को शुद्ध बनाए रखना चाहिए। श्रद्धानिष्ठ व्यक्ति के ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र में स्थिरता रहती है और उससे पूर्व बँधे हुए पाप कर्म का क्षय होता
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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