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पंचम अध्ययन : लोकसार
पंचम उद्देशक
चतुर्थ उद्देशक में अव्यक्त - अगीतार्थ मुनि के एकाकी विचरने का निषेध किया गया है। अब प्रस्तुत उद्देशक में आचार्य की सेवा में रह कर रत्नत्रय की आराधना-साधना करने वाले मुनि के विषय में विवेचन करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - से बेमि तंजा - अवि हरए पडिपुणे समंसि भोमे चिट्ठइ उवसंतरए सारक्खमाणे, से चिट्ठइ सोयमज्झगए से पास सव्वओ गुत्ते, पास लोए महेसिणो जे य पन्नाणमंता पबुद्धा आरम्भोवरया सम्ममेयंति पासह, कालस्स कंखाए परिव्वयंति तिबेमि ॥161॥
छाया—तद् ब्रवीमि तद्यथा— अपि हृदः प्रतिपूर्णः समे भूभागे तिष्ठति उपशान्तरजः संरक्षन् स तिष्ठति स्रोतोमध्यगतः स पश्य ! सर्वतः गुप्तः पश्य ! लोके महर्षयः ये प्रज्ञानवन्तश्च प्रबुद्धाः आरभ्मोपरताः सम्यगेतदित पश्यत ! कालस्य कांक्षया परिव्रजन्ति इति ब्रवीमि ।
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पदार्थ-से-यह शब्द अथ शब्द के स्थान में प्रयुक्त किया गया है, अतः इसका अर्थ है- अब मैं आचार्य के संबन्ध में। बेमि - कहता हूँ | तंजहा - जैसे 1 अपि-संभावना अर्थ में। पडिपुण्णे हरए -- जल से भरा हुआ एक जलाशय है। समंसि-उसका जल समतल है । भोमे-भूमि में । चिट्ठइ - ठहरता है । उवसंतरए - उसका जल उपशांत रज वाला है, और । से - वह - जलाशय । सारक्खमाणे - जलचर जीवों का संरक्षण करता हुआ । चिट्ठइ - स्थित है। इसी तरह वह आचार्य भी । सोयमज्झगए–स्रोत मध्यगत है - स्वयं श्रुत का पारायण करता है और अन्य साधुओं को पढ़ाता भी है, और वह । सव्वओ - सब तरह से । गुत्ते - इन्द्रिय और मन का गोपन करने वाला है । पास - हे शिष्य ! तू देख कि । लोए - लोक में । जे महेसिणो-जो महर्षि हैं, उनको । पास- - देख, वे भी जलाशय के सामन हैं ।