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________________ 614 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध न करे, उस पर ममत्व न करे, उसकी वैयावृत्य न करे और उसके साथ रहस्यमय वार्तालाप न करे तथा उसके विषय में मन में संकल्प भी न करे, पापकर्म का सदैव त्याग करे, गुरु कहते हैं, हे शिष्य! तू इस मुनि-भाव का सम्यग् रूप से पालन कर, इस प्रकार मैं कहता हूं। हिन्दी-विवेचन विवेकशील साधु दीर्घदर्शी एवं ज्ञान सम्पन्न होता है। वह अतीत, अनागत एवं वर्तमान को तथा कर्म फल को भली-भांति देखने वाला है। उसे संयम को सुरक्षित रखने एवं संयम के द्वारा समस्त कर्म बन्धनों को तोड़कर मुक्त होने के रास्ते का भी परिज्ञान है। वह उपशान्त प्रकृति वाला है एवं समिति-गुप्ति से युक्त है, इसलिए वह संयम-निष्ठ मुनि कभी अनुकूल या प्रतिकूल परीषह उत्पन्न होने पर भी संयम से च्युत नहीं होता। उसे कोई भी स्त्री एवं भोगोपभोग के साधन अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सकते। क्योंकि उसने आत्मा के अनन्त सौन्दर्य को जान लिया है, अतः उसके सामने दुनिया के सभी पदार्थों का सौन्दर्य उसे फीका-सा प्रतीत होता है। स्त्री एवं भोग-विलास के साधनों के उपस्थित होने पर वह सोचता है कि मैंने बड़ी कठिनता से सम्यक्त्व को एवं संयम-साधना को प्राप्त किया है। इन विषय-भोगों को तो मैं अनेक बार भोग चुका हूँ; फिर भी इनसे आत्मा की तृप्ति नहीं हुई। इनके कारण मैं बार-बार संसार में परिभ्रमण करता रहा हूँ। इस संसार बन्धन से छूटने का यह साधन मुझे कर्मों के क्षयोपशम से मिला है। अतः अब संसार में भटकाने वाले विषय-भोगों की ओर आकर्षित नहीं हो सकता। संसार का रूप-सौन्दर्य मुझे पथ-भ्रष्ट नहीं कर सकता। ये स्त्रियाँ एवं भोगोपभोग के साधन बड़े-बड़े तत्त्ववेत्ताओं को भी मोह लेते हैं और उनके मोहजाल में आबद्ध साधक पहले तो संयम से भ्रष्ट होता है और बाद में वह उनका दास होकर जीवन व्यतीत करता है। इसलिए सबसे अच्छा यही है कि मैं इन विषय-विकारों एवं भोगों को स्वीकार ही न करूं। इस प्रकार सोच-विचारकर प्रबुद्ध पुरुष भोगेच्छा का त्याग कर देता है, वह भोगों की ओर आकर्षित ही नहीं होता। तीर्थंकरों ने स्त्री-काम-भोगों को भावबन्धन कहा है। मोहकर्म के उदय से मनुष्य वासना के प्रवाह में बहता है। अतः साधु को गुरु के अनुशासन में रहकर
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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