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________________ 612 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध लोके स्त्रियः मुनिना हुए एतत् प्रवेदितं उद्वाध्यमानः ग्रामा-धर्मैरपि निर्वलाशकः अपि अवमौदर्यं कुर्याद् अपि ऊर्ध्वं स्थानं तिष्ठेदपि ग्रामानुग्रामं विहरेद् अपि आहारं व्यवछिन्द्यादपि त्यजेत् स्त्रीषु मनः पूर्व दंडाः पश्चात् स्पर्शाः पूर्वं स्पर्शाः पश्चात् दंडाः इत्येते कलहसंगकराः भवन्ति प्रत्युपेक्षया ज्ञात्वा आज्ञापयेत् अनासेवनया इति ब्रवीमि। स नो कथां कुर्यात् नो पश्येत्, न ममत्वं (कुर्यात्) न कृतक्रियः वाग् गुप्तः अध्यात्मसंवृत्तः परिवर्जयेत् सदा पापं एतद् मौनं समनुवासयेः इति ब्रवीमि। पदार्थ-से-वह साधु। पभूयदंसी-प्रभूत देखने वाला। पभूय परिन्नाणेअत्यन्त ज्ञान वाला। उवसंते-उपशान्त कषाय वाला। समिए-समितियों से समित। सहिए-ज्ञान युक्त। सयाजए-सदा यत्नशील। दटुं-स्त्री जनित उपसर्ग के लिए उद्यत हुआ देख कर। अप्पाणं-आत्मा को। विप्पडिवेएइ-शिक्षित करता है। किमेस जणो करिस्सइ-यह स्त्री जन मेरा क्या कर सकती है? एस से-यह स्त्री जन। परमारामो-परमाराम रूप है अथवा। जाओ-जो। लोगम्मि-लोक में। इथिओ-स्त्रियां हैं वे पुरुषों के मोहोदय का मुख्य कारण हैं। हु-निश्चय ही। एवं-यह पूर्वोक्त विषय। मुणिणा-श्री वर्धमान स्वामी ने। पवेइयं-विशेषता से प्रतिपादन किया है। गामधम्मेहि-इन्द्रिय धर्मों में। उब्बाहिज्जमाणे-पीड़ित होता हुआ। अवि-अपि शब्द संभावना अर्थ से जानना चाहिए। गुरुजनों की शिक्षा द्वारा किस प्रकार बन जाता है, अब इसको दर्शाते हैं, यथा। निब्बलासए-निर्बल और असार-सार-रहित आहार के करने वाला। अवि-पूर्ववत् जानना चाहिए। ओमोयरियंऊनोदरी तप । कुज्जा-करे। अवि-पूर्ववत्। उड्ढ-ऊर्ध्व । ठाणंठा- इज्जा-स्थान पर कायोत्सर्ग तप द्वारा आतापनादि करे। अवि-पूर्ववत्। गामाणुगाम-ग्रामानुग्राम। दूइज्जिज्जा-विचरे। अवि-अपि समुच्चय अर्थ में है। आहार-आहार को। बुच्छि दिज्जा-छोड़ देवे। अवि-अपि शब्द से अन्य अर्थों का भी ग्रहण कर लेना। चए-छोड़ देवे। इत्थीसु मणं-स्त्री में लगे हुए मन को। पुव्वं-पूर्व में। दंडा-है। पच्छा फासा-पीछे नरकादि दुःखों का स्पर्श है तथा। पुव्वंफासा-पहले स्त्री का सुख रूप स्पर्श है। पच्छा दंडा-पीछे दुःख रूप दंड मिलता है। इच्चेए-अतः ये स्त्रियों के संसर्गादि। कलह संगकरा भवंति-कलह संग्रामादि के कारण होते हैं। अथवा राग-द्वेष आदि के उत्पादक होते हैं, अतः। पडिलेहाए-प्रत्युपेक्षणा से।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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