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पंचम अध्ययन, उद्देशक 4
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. में प्रमत्त भाव का त्याग करने का आदेश दिया गया है। दशवैकालिक सूत्र में बताया गया है कि अविवेक पूर्वक चलने वाला, खड़े रहने वाला, बैठने वाला, सोने वाला; भोजन करने वाला, एवं बोलने वाला पापकर्म का बन्ध करता है। अविवेक पूर्वक की जाने वाली प्रत्येक क्रिया पाप बन्ध का कारण है और विवेक पूर्वक की जाने वाली उपर्युक्त सभी क्रियाओं में पाप कर्म का बन्ध नहीं होता। इससे स्पष्ट है कि अविवेक एवं प्रमाद से पाप कर्म का बन्ध होता है, अतः साधु को अप्रमत्त भाव से विवेक पूर्वक कार्य करना चाहिए। विवेक पूर्वक क्रिया करते हुए भी कभी भूल से किसी प्राणी की हिंसा हो जाए तो इपिथिक क्रिया के द्वारा उक्त पाप का क्षय कर दे और यदि परिस्थिति वश या विशेष कारण से जान-बूझकर हिंसा की गई है तो उस पाप से निवृत्त होने के लिए साम्प्रायिक तप अनुष्ठान या प्रायश्चित्त स्वीकार करे इस तरह भूल से या समझ पूर्वक किए गए हिंसक आदि दोषों का क्षय करने के लिए इर्यापथिक एवं साम्प्रायिक क्रियाओं का विधान किया गया है। इस तरह प्रायश्चित्त एवं तप के द्वारा मुनि पापकर्म का क्षय कर देता है। इस लिए साधक को अविवेक एवं प्रमाद का त्याग करके सावधानी के साथ संयम में संलग्न रहना चाहिए। __ अप्रमत्त व्यक्ति का जीवन कैसा होता है, इसको बताते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-से पभूयदंसी पभूयपरिन्नाणे उवसंते समिए सहिये सयाजए, दर्छ विप्पडिवेएइ अप्पाणं किमेस जणो करिस्सइ? एस से परमारामो जाओ लोगसि इत्थीओ, मुणिणा हु एवं पवेइयं, उब्बाहिज्जमाणे माम धम्मेहिं अवि निब्बलासए अवि ओमोयरियं कुज्जा अवि उड्ढं ठाणं ठाइज्जा अवि गामाणुगाम दुइज्जिज्जा अवि आहारं बुच्छिदिज्जा अवि चए इत्थीसु मणं, पुव्वं दंडा पच्छा फासा पुव्वं फासा पच्छा दंडा, इच्चेए कलहासंगकरा भवंति, पडिलेहाए आगमित्ता आणविज्जा अणासेवणाए तिबेमि से नो काहिए नो पासणिए नो मामए णो कयकिरिए वइ गुत्ते अज्झप्पसंडे परिवज्जइ सया पावं एवं मोणं समणुवासिज्जासि, तिबेमि॥1600 .
छाया-स प्रभूतदर्शी प्रभूतपरिज्ञानः उपशान्त समितः सहितः सदायतः दृष्ट्वा विप्रतिवेदयति आत्मानं किमेष जनः कुर्यात् ? स एष परमारामः यः