________________
598
श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
का ज्ञान होना जरूरी है। अतः प्रस्तुत सूत्र में साधक के लिए विवेक सम्पन्न होना बताया गया है।
साधक का जीवन आत्मसाधना का जीवन है। वह रात-दिन चिन्तन-मनन में संलग्न रहता है। वह जंगल में रहे या शहर में, सोया हुआ हो या जागृत, चल रहा हो या बैठा हो, प्रत्येक समय आत्मसाधना में लीन रहता है। भावों की दृष्टि से वह सदा आत्मचिन्तन में संलग्न रहता है। क्योंकि एक क्षण भी आत्मा को भूलता नहीं है। परन्तु व्यवहार की दृष्टि से वह 24 घण्टे साधना नहीं कर सकता। कुछ आवश्यक कार्यों के लिए वह दिन में कुछ देर के लिए स्वाध्याय-ध्यान आदि नहीं कर पाता। इसी तरह रात में कुछ समय विश्रान्ति के लिए आवश्यक है, इसलिए प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि मुनि रात के पहले और अन्तिम प्रहर में निरन्तर आत्मचिन्तन करे। बीच के दो प्रहर निद्रा से मुक्त होने के लिए हैं। इससे मस्तिष्क को विश्राम मिल जाने से थकावट अनुभव नहीं होती, जिससे वह शेष समय आत्म-चिन्तन में रह सकता है।
शील शब्द का प्रयोग कई अर्थों में होता है। अष्टादश सहस्रशीलांग रथ, संयम महाव्रतों का पालन; तीन गुप्तियों का आराधन; 5 इन्द्रिय एवं कषाय निग्रह को शील कहते हैं। इन अर्थों से शील शब्द का महत्त्व स्पष्ट परिलक्षित होता है। यह मोक्ष प्राप्ति का प्रमुख साधन है। अतः साधक को शील का पालन करने में प्रमाद नहीं करना चाहिए।
संयम का शुद्ध रूप से पालन करने के लिए विषयेच्छा एवं कषायों का परित्याग़ करना जरूरी है। विषयासक्त एवं क्रोध आदि विकारों से प्रज्वलित व्यक्ति संयम का पालन नहीं कर सकता, इसलिए साधक को समस्त विकारों का परित्याग करना चाहिए।
इस तरह विकारों पर विजय प्राप्त करके साधक निष्कर्म बनने का प्रयत्न करता है। उसे निष्कर्म बनने के लिए औदारिक शरीर से युद्ध करना पड़ता है। औदारिक शरीर से युद्ध करने का अर्थ है-शरीर बन्धन से मुक्त होकर अशरीरी बनना। यह स्थिति चार घातिकर्मों को क्षय करके जीवन के अन्त में अवशेष चार अघातिकर्मों का नाश करने पर प्राप्त होती है। अतः यह युद्ध जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण है। इसमें .