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पंचम अध्ययन, , उद्देशक 3
विजयी होने के बाद आत्मा सर्व कर्म बन्धनों से मुक्त हो जाता है । अतः साधक को अप्रमत्त भाव से संयम का पालन करना चाहिए ।
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ऐसा अवसर एवं संयम के साधन का मिलना सुलभ नहीं है । अतः साधक को इस अवसर को व्यर्थ नहीं खो देना चाहिए। इस बात को बताते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्–जुद्धारिहं खलु दुल्लहं, जहित्थ कुसलेहिं परिन्नाविवेगे भासिए, चुए हु बाले गब्भाइसु रज्जइ, अस्सि चेयं पवुच्चइ, रूवंसि वा छणसि वा, से हु एगे संविद्धपहे मुणी, अन्नहा लोगमुवेहमाणे, इयं कम्म परिण्णाय सव्वसो से न हिंसइ, संजमई नो पगब्भई, उवेहमाणो पत्तेयं सायं वण्णाएसी नारभे कंचणं सव्वलोए एगप्पमुहे विदिसप्पइन्ने निव्विण्णचारी अरए पयासु ॥ 155 ॥
छाया - युद्धार्हं खलु दुर्लभं यथा अत्र कुशलैः परिज्ञाविवेकः भाषितः च्युतः खलु बालः गर्भादिषु रज्यतेऽस्मिन् चैतत् प्रोच्यते रूपे वा क्षणे वा स खलु एकः संविद्धपथः मुनि अन्यथा लोकं उत्प्रेक्षमानः इति कर्म परिज्ञाय सर्वतः स न हिनस्ति संयमयति नो प्रगल्भते उत्प्रेक्षमाणः प्रत्येकं सातं, वर्णादेशी नारभते कंचन सर्वलोके एकात्मुखः विदिक् प्रतीर्णः निर्विण्णचारी अरतः प्रज्ञासु ।
पदार्थ-खलु-अवधारण अर्थ में है । जुद्धारिहं - यह औदारिक शरीर, भाव युद्ध के योग्य | दुल्लहं - दुर्लभ - मुश्किल से प्राप्त होता है । जहित्य - जिस प्रकार से इस संसार में। कुसलेहिं-तीर्थंकरों ने। परिन्नाविवेगे - परिज्ञाविवेक । भासिए - भाषण किया है- अर्थात् अध्यवसायों की विशेषता प्रतिपादन की है, बुद्धिमान को उसी प्रकार ग्रहण करना चाहिये। हु-निश्चयार्थक है । बाले - अज्ञानी जीव । चूए-धर्म से होकर । भाइ - गर्भादि में। रज्जइ - रचता है अर्थात् गर्भादि में दुख पाता है वा गृहादि को प्राप्त करता है। अस्सिं - इस अर्हत् प्रवचन में। च-समुच्चय अर्थ में है। एयं- - यह विषय | पवुच्चइ - प्रकर्ष से कहा गया है। रूवंसि - रूप में । वा - अथवा अन्य इन्द्रियों के विषयों में । छणसि - हिंसादि में । वा- अनृतादि में प्रवृत्ति करता है, अर्थात् धर्म से पतित हुआ हिंसादि में प्रवृत्ति करके फिर गर्भादि में