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पंचम अध्ययन, उद्देशक 3
मूलार्थ - तीर्थंकर देव ने उक्त विषय केवलज्ञान के द्वारा अवलोकन करके कथन किया है। इस जिन शासन में स्नेह रहित आगमानुसार क्रियानुष्ठान करने वाला पंडित- विचारशील पुरुष रात्रि के पहले और पिछले पहर में यत्न करने वाला तथा सदैव काल शील को विचार कर उसके अनुसार चलनेवाला, शील और कदाचार के फल को सुनकर हृदय में विचार कर, इच्छा, कामभोग और लोभादि रहित होवे । हे शिष्य ! तू इस औदारिक शरीर के साथ युद्ध कर तुझे बाहर के युद्ध से क्या प्रयोजन है?
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हिन्दी - विवेचन
पूर्व सूत्र में संयम - साधना को लेकर जो भंग बताए गए हैं, वे सर्वज्ञ पुरुषों द्वारा उपदिष्ट हैं। उन्होंने अपने ज्ञान में देखकर यह बताया है कि संयम साधना के द्वारा ही मनुष्य निष्कर्म बन सकता है। साधना में तेजस्विता लाने के लिए प्रस्तुत सूत्र में पांच बातें बताई गई हैं। इन गुणों को जीवन में उतारने वाला साधक साध्य को शीघ्र प्राप्त हैं। पांच गुण इस प्रकार हैं- 1. स्नेह रहित होना, 2. सदसत् का ज्ञात होना, 3. रात्रि के प्रथम और अन्तिम पहर में अनवरत आत्म चिन्तन करने वाला होना, 4. सदा शील का परिपालक होना और 5. कामेच्छा एवं लोभ- तृष्णा का त्यागी होना ।
स्नेह रहित होने का तात्पर्य है - राग-द्वेष रहित होना, क्योंकि राग भाव में मनुष्य हिताहित की भावना को भूल जाता है। राग के तीन भेद किए गए हैं - 1. स्नेह राग, 2. दृष्टि राग और 3. विषय राग । स्नेह राग का अर्थ है - अपने स्नेही के दोषों को भी रागवश गुण रूप मानना, उसे गलती करने पर भी कुछ नहीं कहना । दृष्टि राग का अर्थ है-असत्य सिद्धान्त को असत्य होते हुए भी सांप्रदायिक रागवश सत्य मानना एवं कुतर्कों के द्वारा उसे सत्य सिद्ध करने का प्रयत्न करना । विषय राग का अर्थ है-कामभोगों के प्रति आसक्ति रखना । ये तीनों तरह का राग संयम से दूर हटाने वाला है, अतः साधक को राग भाव का परित्याग करना चाहिए ।
विवेकशील व्यक्ति ही संयम का भली-भांति पालन कर सकता है। जिस व्यक्ति को सदसत् का विवेक नहीं है, हेयोपादेयता का बोध नहीं है, वह संयम का पालन नहीं कर सकता। इसलिए संयम - साधना को स्वीकार करने के पहले पदार्थों