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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
नहीं उठता। इस भंग में गृहस्थ को लिया गया है, और उन साधुओं को भी इसी भंग में समाविष्ट किया गया है, जो बिना भाव के साधु वेश को स्वीकार करते हैं और रात-दिन आरंभ-समारंभ में संलग्न रहते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि संयम भाव से रहित समस्त साधु-संन्यासियों को इसी भंग में गिना गया है और इन्हें गृहस्थ के तुल्य कहा गया है। क्योंकि द्रव्य से साधु कहलाते हुए भी रात-दिन गृहस्थ की तरह आरंभ-समारंभ में लगे रहने के कारण भाव से संयम हीन होने से वे गृहस्थ की श्रेणी में ही रखे गए हैं।
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यह कथन स्वबुद्धि से नहीं, बल्कि तीर्थंकरों द्वारा किया गया है। इस बात को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - एयं नियाय मुणिणा पवेइयं, इह आणाकंखी पंडिए अणि, पुव्वावररायं जयमाणे, सयासीलं सुपेहाए सुणिया भवे अकामे अझंझे इमेण चैव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेण बज्झओ || 154 |
छाया - एतद् ज्ञात्वा मुनिना प्रवेदितं इह आज्ञाकांक्षी' पण्डितः अस्निहः पूर्वापररात्रं यतमानः सदाशीलं सप्रेक्ष्य श्रुत्वा भवेत् अकामः । अज्झञ्झः अनेनैव युध्यस्व किंतु युद्धेन बाह्यतः ।
पदार्थ - एयं - यह यत्नादिक । नियाय - केवलज्ञान से जान कर | मुणिणातीर्थंकर देव ने । पवेइयं - कथन किया है । इह - इस मौनीन्द्र प्रवचन में स्थित । आणाकंक्खी - आज्ञानुसार प्रवृत्ति करने वाला । पंडिए - सदसत् का विवेकी । अणिहे - स्नेह रहित । पुव्वावररायं - रात्रि के पहले और पिछले पहर में । जयमाणेसदाचार का आचरण करने वाला, अर्थात् ध्यान आदि क्रियाओं का अनुष्ठान करने वाला । सया - सदा । सीलं - शील को । सुपेहाए - विचार कर, उसका पालन करे । सुणिया- सुनकर - शील संप्रेक्षण के फल को सुनकर, तथा कदाचार के फल को सुनकर। अकामे - इच्छा अथ च मदन- काम भोगादि से रहित । अझंझे - माया और लोभादि से रहित । भवे - होवे । च - परस्पर सापेक्षार्थ है । एव - अवधारणार्थ में। इमेण - इस औदारिक शरीर के साथ । जुज्झाहि-युद्ध कर । किं- क्या है । ते - तुझे । बज्झा ओ - बाहर के । जुज्झेण - युद्ध से।