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पंचम अध्ययन, उद्देशक 3
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अभाव में साधु वेश होने पर भी उन्हें भाव से गृहस्थ जैसा ही कहा गया है, क्योंकि वे गृहस्थ को तरह आरंभ-समारंभ में संलग्न रहते हैं। हिन्दी-विवेचन
प्रस्तुत सूत्र में विचार-चिन्तन की विचित्रता का दिग्दर्शन कराया गया है। कुछ व्यक्ति जीवन में त्याग-वैरागय की भावना लेकर साधना पर चलने को उद्यत होते हैं
और प्रतिक्षण त्याग-वैरागय को बढ़ाते चलते हैं। साधना के प्रारम्भ समय से लेकर जीवन के अन्तिम क्षण तक वे दृढ़ता के साथ संयम में स्थिर रहते हैं। गणधरों की तरह उनकी साधना में उत्तरोत्तर उज्ज्वलता एवं तेजस्विता आती रहती है। इस तरह से प्रतिक्षण विकास करते हुए अपने साध्य को सिद्ध कर लेते हैं। _ कुछ व्यक्ति त्याग-वैराग्य की ज्योति लेकर दीक्षित होते हैं। प्रारंभ में उनके विचारों में तेजस्विता होती है, परन्तु पीछे परीषहों के उत्पन्न होने पर मन विचलित हो उठता है। साधना की ज्योति धूमिल पड़ने लगती है। उनके विचारों में शिथिलता आने लगती है और. वे पतन की ओर लुढ़कने लगते हैं। शारीरिक एवं मानसिक आराम के प्रबल झोंकों के सामने त्याग-वैरागय की घनघोर घटाएं स्थिर नहीं रह पातीं। इस तरह कष्ट सहिष्णुता की कमी के कारण वे साधना पथ पर स्थित नहीं रह सकते हैं। परीषहों के उपस्थित होते ही पथ भ्रष्ट हो जाते हैं।
त्याग-वैराग्य भाव से संयम ग्रहण करना और अन्तिम क्षण तक उसका दृढ़ता से परिपालन करना प्रथम भंग है। संयम का ग्रहण करके पीछे से उसका त्याग कर देना दूसरा भंग है। पहले संयम ग्रहण न करके पीछे से उसका पालन करना, यह तीसरा भंग बनता है। परन्तु ऐसा हो नहीं सकता, क्योंकि संयम का पालन एवं त्याग पहले संयम स्वीकार करने पर ही घटित हो सकते हैं। परन्तु जिसने संयम को स्वीकार ही नहीं किया है, उसके पीछे से संयम पालन का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। अतः तीसरा भंग नहीं बनता है। इसलिए सूत्र में तीसरे भंग का उल्लेख नहीं किया गया है।
चतुर्थ भंग में न संयम का ग्रहण होता है और न त्याग का ही प्रश्न होता है। त्याग का प्रश्न ग्रहण करने पर ही उपस्थित होता है, जो विद्यार्थी परीक्षा में बैठता ही नहीं, उसके उत्तीर्ण और अनुत्तीर्ण होने का प्रश्न ही नहीं उठता। इसी तरह जिसने संयम को स्वीकार ही नहीं किया है, उसके लिये संयम के पालन एवं त्याग का प्रश्न