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________________ 590 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध सहन करे। हे शिष्य! जो व्यक्ति धर्म से बाहर हैं, उनको तू देख और अप्रमत्त होकर संयम मार्ग में विचरण कर! यही मुनि का मुनित्व है। अतः तू सम्यक् प्रकार विहित क्रियाओं का पालन कर। हिन्दी-विवेचन हम देख चुके हैं कि परिग्रह आत्मविकास में प्रतिबन्धक है। जब तक पदार्थों में आसक्ति रहती है, तब तक आत्मिक गुणों का विकास नहीं होता। अतः निष्परिग्रही व्यक्ति ही आत्म अभ्युदय के पथ पर बढ़ सकता है। वही विषय-वासना एवं दोषों से निवृत्त हो सकता है। क्योंकि जीवन में वासना की उत्पत्ति परिग्रह-आसक्ति से होती है। पदार्थों में आसक्त व्यक्ति ही अब्रह्मचर्य या विषय-सेवन की ओर प्रवृत्त होता है। जिस व्यक्ति के जीवन में पदार्थों के प्रति मूर्छाभाव नहीं है, उसके मन में कभी भी विषयवासना की आग प्रज्वलित नहीं होती। अतः परिग्रह से वासना जागृत होती है और विषय-भोग से कर्म का बन्ध होता है और परिणामस्वरूप संसार परिभ्रमण एवं दुःख के प्रवाह में अभिवृद्धि होती है। इसलिए मुमुक्षु पुरुष को विषय-वासना पर विजय प्राप्त करने के लिए परिग्रह, अर्थात् पदार्थों पर स्थित मूर्छा-ममता, आसक्ति एवं भोगेच्छा का त्याग करना चाहिए। विषय में आसक्त एवं प्रमत्त व्यक्ति ब्रह्मचर्य का परिपालन नहीं कर सकते। वे अपनी इच्छा, आकांक्षा एवं वासना की पूर्ति के लिए विषय-भोगों में सलंग्न रहते हैं। उन्हें प्राप्त करने के लिए रात-दिन छल-कपट एवं आरंभ-समारंभ करते हैं और फल स्वरूप पाप कर्म का बन्ध करके संसार में परिभ्रमण करते हैं। अतः मुनि को उन प्रमत्त जीवों की स्थिति को देख कर विषय-भोगों का एवं परिग्रह का त्याग करना चाहिए। ___ परिग्रह से रहित व्यक्ति के मन में सदा शान्ति का सागर ठाठे मारता रहता है। कठिन से कठिन परिस्थिति में भी वह सहनशीलता का त्याग नहीं करता। यों कहना चाहिए कि उसकी सहिष्णुता में अभिवृद्धि होती है। अतः मुमुक्षु पुरुष को निष्परिग्रही होकर विचरना चाहिए। त्तिबेमि की व्याख्या पूर्वक समझें। ॥ द्वितीय उद्देशक समाप्त ॥
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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