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पंचम अध्ययन, उद्देशक 2 - मूलम्-से सुपडिबुद्धं सूवणीयंति नच्चा पुरिसा परमचक्खू विपरिक्कमा, एएसु चेव बंभचेरं तिबेमि, से सुयं च मे अज्झत्थयं च मे-बन्धपमुक्खो अज्झत्थेव, इत्थ विरए अणगारे दीहरायं तितिक्खए, पमत्ते बहिया पास, अप्पमत्तो परिव्वए, एयं मोणं सम्म अणुवासिज्जासि त्तिबेमि॥151॥
छाया-तस्य सुप्रतिबद्वं सूपनीतमिति ज्ञात्वा हे पुरुष! परम चक्षुः! पराक्रमस्व एतेष्वेव ब्रह्मचर्यमिति ब्रवीमि तच्छ्रतं च मया अध्यात्मं च मया बन्ध प्रमोक्षः अध्यात्मन्येव अत्र विरतः अनगारः दीर्घरात्रं तितिक्षेत् प्रमत्तान् बहिः पश्य! अप्रमत्तः परिव्रजेत् एतन्मौनं सम्यक् अनुबासयेः इति ब्रवीमि।
पदार्थ-से-वह परिग्रह से विमुक्त मुनि। सुपडिबद्धं-जिसने भली प्रकार से बोध प्राप्त किया है। सूवणीयंति-भली प्रकार से ज्ञानादि प्राप्त किए हैं। नच्चाजानकर। पुरिसा परमचक्खू-हे पुरुष! परम चक्षु! विपरिक्कमा-मोक्ष साधन में पराक्रम कर। एएसु-ये जो परिग्रह से विरत हैं इनमें ही। च-पुनः । एव-अवधारण अर्थ में है। बंभचेरं-ब्रह्मचर्य है। त्तिबेमि-इस प्रकार में कहता हूँ। से-वह जो कहा है। च-पुनः जो कहूँगा सो वह। मे-सुयं-सुना है। च-पुनः। मे-मेरे। अज्झत्थयं-अध्यात्म में व्यवस्थित है। च-पुनः । मे-मैंने माना है। बंधपम्मुक्खोबन्ध से प्रमोक्ष। अज्झत्थेव-अध्यात्म अर्थात् ब्रह्मचर्य से ही होता है। इत्थ-इस परिग्रह से। विरए-विरत। अणगारे-अनगार। दीहरायं-जीवन पर्यन्त। तितिक्खएपंरीषहों को सहन करे। पास-हे शिष्य! तू देख। पमत्ते-प्रमत्त । बहिया-धर्म से बाहर है अतः तू। अप्पमत्तो-अप्रमत्त होकर। परिव्वए-संयमानुष्ठान में चल। एयं-यही। मोणं-मुनि का मुनित्व। सम्म-सम्यक् प्रकार से। अणुवासिज्जासिअनुपालन कर। तिबेमि-इस प्रकार मैं कहता हूँ।
मूलार्थ-ज्ञान रूप चक्षु रखने वाले हे पुरुष! तू परिग्रह के त्यागी मुनि के भली प्रकार से प्राप्त हुए सुदृढ़ ज्ञानादि का विचार करके तपोनुष्ठान विधि से संयम में प्रयत्न कर! जो ये परिग्रह से विरत हैं, इन्हीं में ब्रह्मचर्य अवस्थित है। इस प्रकार मैं कहता हूं, मैंने सुना है और मन में निश्चय किया हुआ है कि पुरुष ब्रह्मचर्य से ही बन्धन से मुक्त हो सकता है। परिग्रह का त्यागी अनगार जीवन पर्यन्त परीषहों को