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पंचम अध्ययन : लोकसार
तृतीय उद्देशक
द्वितीय उद्देशक में अविरत और परिग्रही व्यक्तियों के जीवन का उल्लेख किया है। प्रस्तुत उद्देशक में विरत और अपरिग्रही साधक के जीवन का विश्लेषण करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-आवंती केयावंती लोयंसि अपरिग्गहावंती एएसु चेव अपरिग्गहावंती, सुच्चा दई मेहावी पंडियाण निसामिया समियाए धम्मे आरिएहिं, पवेइए जहित्थ मए संधी झोसिए एवमन्नथ संधी दुज्झोसएं भवइ, तम्हा बेमि नो निहणिज्ज वीरियं॥152॥ - छाया-यावन्त केचन लोके अपरिग्रहवन्तः एतेष्वेव अपरिग्रहवन्तः श्रुत्वा वाचं मेधावी पंडितानां निशम्य समतया धर्मः आर्यैः प्रवेदितः यथाऽत्र मया सन्धिः झोषितः एवमन्यत्र सन्धि दुर्दोष्यो भवति, तस्माद् ब्रवीमि नो निहन्यात्
वीर्यम्।
- पदार्थ-लोयंसि-इस लोक में। आवंती केयावंती-जितने भी। अपरिग्गहावंती-अपरिग्रही व्यक्ति हैं। च-और। एव-निश्चय ही। एएसु-इन में। अपरिग्गहावंती-निष्परिग्रही व्यक्ति। मेहावी-बुद्धिमान। पंडियाण-पंडितों के। वई-वचन। सोच्चा-सुनकर। समियाए-समभाव से। निसामिया-हदय में विचार कर, कि। आरिएहि-आर्यपुरुषों ने। धम्मे-धर्म का। पवेइए-कथन किया है, और। जहित्थ-इस ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप धर्म से। मए-मैंने। संधी झोसिए-कर्म सन्तति को क्षय किया है। एवं-इस प्रकार। अणत्थ-अन्यतीर्थियों के मत में। संधी-कर्म सन्तति को। दुज्झोसए-क्षय करना कठिन । भवति-होता है। तम्हाइसलिए। बेमि-मैं कहता हूँ कि संयम परिपालन में। वीरियं-पुरुषार्थ को। नो निहणिज्ज-गोपन नहीं करना चाहिए, अर्थात् छिपाना नहीं चाहिए।