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पंचम अध्ययन, उद्देशक 2
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फल है। अतः समभाव पूर्वक ही सहना चाहिए; यह शरीर सदा स्थायी रहने वाला नहीं है। प्रतिक्षण बदलता रहता है। यह अध्रुव है, अशाश्वत है, अनित्य है, ह्रास एवं अभिवृद्धि वाला है। अतः इसके लिए इतनी चिन्ता क्यों करनी चाहिए? इस तरह धैर्य के साथ कष्ट एवं वेदना को सहकर अशुभ कर्म नष्ट कर दे और आगे पाप कर्म का बन्ध नहीं होने दे।
मुनि जीवन का उद्देश्य है-समस्त कर्म बन्धनों को तोड़ कर निष्कर्म बनना। अतः मुनि को सदा-सर्वदा इस शरीर एवं जीवन को अनित्य समझकर अपने आत्मविकास में संलग्न रहना चाहिए। यह सत्य है कि शरीर आत्मविकास का साधन है। अतः साध्य की सिद्धि के लिए साधन को भी व्यवस्थित रखना चाहिए। यह हमेशा ध्यान में रखना चाहिए कि साधन का महत्त्व साध्य सिद्धि के लिए है। यदि उसका उपयोग अपने लक्ष्य को साधने में नहीं हो रहा है, तो फिर उसका कोई मूल्य नहीं रह जाता है। अतः शरीर का ध्यान भी संयम साधना के लिए है, न कि शरीर पोषण के लिए। इसलिए रोगादि कष्टों के उपस्थित होने पर साधक को उसके लिए आर्त, रौद्र ध्यान नहीं करना चाहिए। परन्तु, इसका यह अर्थ नहीं है कि वह स्वस्थ होने का भी प्रयत्न न करे। साधक शारीरिक स्वास्थ्य लाभ के लिए निर्दोष औषध आदि का उपयोग कर सकता है, परन्तु साथ में मानसिक, आत्मिक स्वस्थता को बनाए रखते हुए। इसका तात्पर्य इतना ही है कि उस रोग से उसके मन में, विचारों में एवं आचार में किसी तरह की विकृति न आए। महावेदना का प्रसंग उपस्थित होने पर भी धैर्य एवं सहिष्णुता का त्याग न करे। हर परिस्थिति में वह आत्मचिन्तन में संलग्न रहने का प्रयत्न करे। इससे पूर्व में बंधे हुए कर्मों का क्षय होगा और अभिनव कर्मों (पाप कर्म) का बन्ध नहीं होगा। इस तरह वह एक दिन निष्कर्म बन सकेगा। अतः समभाव पूर्वक परीषहों एवं कष्टों को सहन करने से वह एक दिन सम्पूर्ण परीषहों एवं कष्टों से मुक्त हो जाएगा।
इसलिए साधक को कष्ट के समय अपने मन को शरीर से हटा कर आत्मचिन्तन में लगाना चाहिए और धैर्य के साथ कष्टों को सहने का प्रयत्न करना चाहिए। यही तीर्थंकर भगवान का उपदेश है।
इस तरह शरीर एवं आत्मा के यथार्थ स्वरूप को जानने वाले चिन्तनशील