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________________ 584 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध फासे पुट्ठो-रोगादि के स्पर्श होने पर वह। अहियासइ-सम्यक्तया सहन करे। से-वह रोग आदि से पीड़ित मुनि यह सोचे कि। पुदिपेयं-मैंने पहले भी रोगादि के दुःखों को सहन किया था। पच्छापेयं-बाद में भी होने वाला रोगादि का दुःख मुझे ही सहन करना है, फिर यह औदारिक शरीर। भिउरधम्म-भेदेन धर्म-स्वभाव वाला है। विद्धंसण-विध्वंस होने वाला है। अधुवं-अध्रुव है। अणिइयं-अनित्य है। असासयं-अशाश्वत है। चयावचइयं-चय-उपचय वाला है। विप्परिणामधम्मविपरिणाम धर्म वाला है, अतः। एवं स्वसंधिं-इस अमूल्य अवसर को। पासह-देख, अर्थात् इस शरीर की स्थिति पर विचार करके रोग आदि दुःखों एवं परीषहों को समभाव पूर्वक सहन कर। मूलार्थ-जो साधक पाप कर्म में आसक्त नहीं है, ऐसे चारित्रनिष्ठ साधक को मुनि कहा गया है। उसके लिए तीर्थंकरों ने कहा है कि वह धैर्यवान साधक रोग आदि के उत्पन्न होने पर उन्हें समभाव पूर्वक सहन करता है। वह संयमी पुरुष ऐसा सोचता-विचारता है कि यह रोग मैंने पहले भी सहन किया था और पीछे भी मुझे सहन करना ही है। यह शरीर स्थायी रहने वाला नहीं है। यह विध्वंस-नष्ट होने वाला है। यह अध्रुव, अनित्य अशाश्वत है, ह्रास और अभिवृद्धि वाला है। अतः ऐसे नाशवान शरीर पर क्या ममत्व करना? इस तरह शरीर के स्वरूप एवं प्राप्त हुए अमूल्य अवसर को देखो। हिन्दी-विवेचन __ प्रस्तुत सूत्र में साधक को कष्टसहिष्णु बनने का उपदेश दिया गया है। औदारिक शरीर रोगों का आवास स्थल है। जब तक पुण्योदय रहता है, तब तक रोग भी दबे रहते हैं। परन्तु असातावेदनीय कर्म का उदय होते ही अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। अतः शरीर में रोग एवं वेदना का उत्पन्न होना सरल है, क्योंकि औदारिक शरीर ही रोगों से भरा हुआ है। इसलिए रोगों के उत्पन्न होने पर साधक को आकुल-व्याकुल नहीं होना चाहिए। उन्हें अशुभ कर्म का फल जानकर समभाव पूर्वक सहन करना चाहिए। उस समय साधक को यह सोचना चाहिए कि पहले भी मैंने रोगों के कष्ट को सहन किया है और अब भी उदय में आए हुए वेदनीय कर्म को वेदना ही होगा। अतः हाय-हाय करके अशुभ कर्म का बंध क्यों करूं? यह वेदना मेरे कृत कर्म का ही
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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