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________________ पंचम अध्ययन, उद्देशक 2 583 - करता है, पाप कर्म का बन्ध करता है, जिससे वह कट फल को प्राप्त करता है। इससे स्पष्ट है कि अयत्ना एवं प्रमादपूर्वक की जाने वाली क्रिया से पाप कर्म का बन्ध होता है और विवेकपूर्वक अप्रमत्त भाव से की जाने वाली क्रिया से पाप कर्म का बन्ध नहीं होता। अतः मुनि को प्रत्येक समय प्रमाद का त्याग करके अप्रमत्त भाव से साधना में संलग्न रहना चाहिए और किसी भी स्थिति में आरम्भ का सेवन नहीं करना चाहिए। प्रतिकूल एवं अनुकूल परीषह उत्पन्न होने पर भी उसे अपने पथ से विचलित नहीं होना चाहिए। कष्ट के समय भी उसे आरम्भ का सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह आर्योपदिष्ट मार्ग बार-बार नहीं मिलता। इसलिए प्राप्त हुए अवसर को सफल बनाने के लिए साधक को अपनी पूरी शक्ति लगा देनी चाहिए। अब प्रश्न होता है कि आए हए परीषहों को सहन करने से किस गुण की प्राप्ति होती है, इसका समाधान करते हुए सूत्रकार कहते हैं___ मूलम्-एस समिया परियाए वियाहिए, जे असत्ता पावेहिं कम्मेहिं उदाहु ते आयंका फुसंति, इति उदाहु धीरे ते फासे पुट्ठो अहियासइ, से पुट्विंपेयं पच्छापेयं भेउरधम्म विद्धंसणधम्ममधुवं अणिइयं असासयं चयावचइयं विप्परिणामधम्मं पासह एवं स्वसंधि॥148॥ . छाया-एष सम्यक् (शमिता) पर्यायः व्याख्यातः ये असक्ताः पापेषु कर्मसु कदाचित् तान् आतंकाः स्पृशन्ति इति उदाहृतवान् धीरः तान् स्पर्शान् स्पृष्टः सन् अध्यासयेत् पूर्वमप्येतत् पश्चादप्येतद् भिदुरधर्मं, विध्वंसनधर्ममधुवं, अनित्यं, अशाश्वतं, चयापचयिक, विपरिणामधर्मं पश्यतैनं रूपसंधिम् । ___ पदार्थ-एस समिया-यह (मुनि) परीषहों को सहन करने वाला। परियाए-और सम्यक् प्रवज्या से युक्त। वियाहिए-कहा गया है। अब रोग के उत्पन्न होने पर सहिष्णुता रखने वाले साधक के सम्बन्ध में कहते हैं। उदाहु-तीर्थंकरों ने इस प्रकार कहा है, कि। जे-जो। पावेहिं-पाप कर्मों में। असत्ता-आसक्त नहीं हैं। ते-ऐसे मुनियों को। आयंका-आतंक-रोग। फुसंति-स्पर्श करता है। इति उदाहु-तब उनके सम्बन्ध में कहते हैं कि। धीरे-वे धैर्यवान पुरुष। ते-उन।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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