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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
से न तो किसी प्राणी की हिंसा करता है, न दूसरे व्यक्ति से हिंसा कराता है और न किसी अन्य व्यक्ति के द्वारा की गई हिंसा का अनुमोदन या समर्थन ही करता है
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वह गृहस्थ की निश्रा - गृहस्थ के अधिकार में रहे हुए उसके मकान में उसकी आज्ञा से रहता है। फिर भी उसके अनुशासन को मानकर नहीं चलता । उसकी निश्रा में रहते हुए वह आरंभ की ओर प्रवृत्त नहीं होता। इसका तात्पर्य यह है कि वह गृहस्थ की आज्ञा से उसके मकान में रहते हुए भी ऐसा आहार -पानी, वस्त्र - पात्र, तख्त आदि आवश्यक साधन-सामग्री स्वीकार नहीं करता, जिसमें उसके लिए आरम्भ-समारम्भ किया गया हो। वह स्वतन्त्र रूप से आहार आदि लाने के लिए
और अपनी साधु-मर्यादा के अनुरूप शुद्ध सात्त्विक एवं ऐषणिक आहार को ग्रहण करेगा। इस प्रकार वह अपनी समस्त क्रियाएं स्वयं विवेकपूर्वक करता है और अपने जीवन के लिए किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं देता। इसलिए उसकी समस्त क्रियाएँ निष्पाप होती हैं । वह पाप कर्म का क्षय करता हुआ मुनि भाव में विचरण करता है।
वह इस बात को जानता है कि यह मार्ग ही प्रशस्त है, सब दुःखों से मुक्त करनेवाला है। क्योंकि यह मार्ग तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट है। इसलिए यह मार्ग सबके लिए क्षेमंकर है। इस मार्ग में किसी भी प्राणी को संक्लेश उत्पन्न नहीं होता । मुनि अपने हित के साथ प्राणिमात्र के हित का ध्यान रखता है । वह अपने मन-वचन और शरीर से किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं पहुंचाता। प्रत्येक प्राणी के प्रति अनुकंपा एवं दया का भाव रखता है। अतः यह मार्ग सर्वश्रेष्ठ एवं प्राणिजगत के लिए हितप्रद है ।
निष्कर्ष यह है कि यह मार्ग प्रशस्त है । परन्तु प्रशस्त के साथ कठिन भी है। इसीलिए इस मार्ग पर चलने के लिए उद्यत हुए व्यक्ति को पूरी सावधानी रखनी होती है। अतः आगम में मुनि को विवेकपूर्वक एवं अप्रमत्त भाव से क्रिया करने का आदेश दिया गया है। मुनि को प्रत्येक कार्य विवेक, यत्ना एवं अप्रमत्त भाव से करना चाहिए, जिससे किसी भी प्राणी को कष्ट एवं पीड़ा न हो। अतः साधक के लिए त्याग करना आवश्यक है'। क्योंकि अयत्नापूर्वक चलने वाला, खड़ा रहने वाला, बैठने वाला, खाने वाला, बोलने वाला, शयन करने वाला, प्राण, भूत, जीव, सत्त्व की हिंसा
1. दशवैकालिक सूत्र... 4, 1, 6