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पंचम अध्ययन, उद्देशक 1
विशेष साधना एवं किसी विशिष्ट कारण के बिना ही गुरु आदि की आज्ञा लिए बिना ही अपनी प्रकृति की विषमता से या विषय-वासना से प्रेरित होकर अकेले विचरते हैं।
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प्रस्तुत सूत्र में जो “एतेसु चेव आरंभ जीवी" पाठ दिया है, वृत्तिकार ने उसकी व्याख्या इस प्रकार की है – “एतेषु सावद्यारम्भ प्रवृत्तेषु गृहस्थेषु शरीरयापनार्थ वर्तमानस्तीर्थिकः पार्श्वस्थादिर्वा ‘आरंभजीवी' सावद्यानुष्ठानवृत्तिः पूर्वोक्त दुःखभाग् भवति ।' अर्थात् गृहस्थ आदि में जो सावद्यवृत्ति होती है, उसका परिणाम दुःखप्रद होता है।
“इत्थ वि बाले परिपच्चमाणे रमइ" की व्याख्या करते हुए लिखा है - " अत्र अस्मिन्नप्यर्हत्प्रणीत- संयमाभ्युपगमे बालो रागद्वेषाकुलितः परितप्यमानः परिपच्यमानो वा. विषयपिपासया रमते” अर्थात् - अर्हत् भगवान के शासन में दीक्षित होकर भी कोई-कोई अज्ञानी व्यक्ति विषय कषाय के वश पाप कर्म में रमण करते हैं । प्रस्तुत सूत्र में 'रमइ रमते' वर्तमान कालिक क्रिया के प्रयोग से ऐसा प्रतीत होता है कि सूत्रकार के समय में भी ऐसे व्यक्ति रहे हों । ' इत्यादि पाठ से भी यह ध्वनित होता है और ऐसा होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि मोहकर्म के उदय में आने वाली उत्तर प्रकृतियों के कारण उस युग में भी संयम से पथभ्रष्ट होना संभव हो सकता है।
'मानव' शब्द से यह स्पष्ट किया गया है कि मनुष्य ही मोक्ष की सम्यक् साधना कर सकता है। अन्य योनि से मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती ।
'अविज्जाए पनि मुक्खमाहु' का तात्पर्य है कि जो अज्ञानी व्यक्ति ज्ञान, दर्शन और चरित्र रूप विद्या से विपरीत अविद्या के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति मानते हैं, वे धर्म तत्त्व से अनभिज्ञ हैं ।
तिमि का अर्थ पूर्ववत् समझें ।
॥ प्रथम उद्देशक समाप्त ॥
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