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________________ 578 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध रूप दुष्कर्म को शरणभूत मानकर उसमें प्रवृत्त होता है। परिणामस्वरूप वह और अधिक दुःख एवं कष्ट का वेदन करता है। कुछ व्यक्ति विषय-वासना का त्याग करके मुनि बनते हैं, परन्तु फिर से विषय-कषाय के वश में होकर अकेले विचरने लगते हैं। इससे उन पर आचार्य एवं गुरु आदि किसी का नियन्त्रण नहीं रहता और अनुशासन के अभाव में उनके जीवन में कषायों-क्रोध, मान, माया, लोभ एवं विषयों की अभिवृद्धि होती है। वह गुप्त रूप से पाप कर्म में प्रवृत रहता है और परिणामस्वरूप वह पतन के गर्त में गिरता है। ___ अज्ञान के कारण ही कुछ व्यक्ति अधर्म एवं पापकार्यों को धर्मस्वरूप समझते हैं। दुराग्रह के कारण वे धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझने का प्रयास नहीं करते। या यों कहिए कि वे अपनी स्वार्थ साधना एवं मिथ्या प्रतिष्ठा को बनाये रखने के लिए धर्म के यथार्थ स्वरूप को स्वीकार नहीं करते, अधर्म को ही धर्म का चोला पहनाकर स्वयं पाप कर्म में प्रवृत्त होते हैं और जनता को भी उस मार्ग पर प्रवृत्त होने के लिए प्रेरित करते हैं। इस तरह ऐसे व्यक्ति विषय-कषाय एवं अन्य पाप कर्मों को करने में प्रवीण होते हैं और भोली-भाली जनता के मन में तर्क के द्वारा अधर्म को धर्म बनाने में भी चतुर होते हैं। परन्तु वे धर्माचरण से सदा विमुख रहते हैं। वे अज्ञान या अविद्या के द्वारा ही मोक्ष मानते हैं। ऐसे व्यक्ति धर्म के स्वरूप को नहीं जानते। अतः परिणामस्वरूप वे चार गति संसार में परिभ्रमण करते हैं। ऐसे व्यक्तियों के संसार का अन्त नहीं हो सकता। ____ प्रस्तुत सूत्र में जो यह बताया गया है कि अकेले साधु के जीवन में विषय-कषाय की अभिवृद्धि होती है। वह विषय-वासना एवं प्रकृति की विषमता के कारण पृथक् हुए साधु की अपेक्षा से कहा गया है, न कि सभी साधुओं के लिए। क्योंकि कुछ साधक अकेले रहकर भी अपना आत्मविकास करते हैं और आगमकार भी उन्हें अकेले विचरने की आज्ञा देते हैं। दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र में एकाकी विहार समाचारी का विस्तार से वर्णन मिलता है। इससे स्पष्ट है कि भिक्षु प्रतिमा स्वीकार करने के लिए, जिनकल्प पर्याय को ग्रहण करने के लिए या किसी विशेष परिस्थितिवश मुनि गुरु एवं संघ के आचार्य की आज्ञा लेकर अकेला विचरता है, तो वह अपने आत्मगुणों में अभिवृद्धि करता है। अतः आचाराङ्ग सूत्र का यह पाठ उन मुनियों के लिए है, जो
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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