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________________ पंचम अध्ययन, उद्देशक 1 लोक में कितने ही प्राणी आरम्भ से आजीविका करने वाले इन गृहस्थं या सारम्भी अन्य तीर्थियों में आरम्भपूर्वक जीवन व्यतीत करते हैं। इस संसार में अज्ञानी जीव, विषयों की अभिलाषा से सावद्य कर्मों में संलग्न रहते हैं, अशरणरूप पापकर्म को शरणभूत मानते हुए नाना प्रकार की वेदनाओं का अनुभव करते हैं तथा इस मनुष्य लोक में कोई व्यक्ति विषयकषायों के अधीन होकर अकेले विचरने लगता है और फिर वह अधिक क्रोध, अधिक मान, अधिक माया और अधिक लोभ वाला हो जाता है तथा अधिक कर्मरज से युक्त, नट की भांति विषयों के लिए घूमने वाला अत्यन्त धूर्त, अधिक संकल्पों वाला, आश्रवों में आसक्ति रखने वाला और कर्मों से आच्छादित हुआ - 'मैं धर्म के लिए उद्यत हो रहा हूँ, इस प्रकार बोलता है कि मुझे कोई पाप कर्म करते हुए न देखे, इस प्रकार विचारता हुआ अज्ञान और प्रमाद के वशीभूत होकर सदा अकार्य में लगा रहता है । वह निरन्तर मूढ़ हुआ धर्म को नहीं जानता । हे मानव ! विषयकषायभूत कर्म करने में कोविद, कर्मानुष्ठान में चतुर, पापों से निवृत्त न होने वाले जीव अविद्या से मोक्ष सुख की प्राप्ति मानते हैं । इस प्रकार मैं कहता हूँ । 577 हिन्दी - विवेचन प्रस्तुत सूत्र में विषय-वासना में आसक्त व्यक्ति के जीवन का दिग्दर्शन कराया गया है। यह स्पष्ट है कि वासना में आसक्त व्यक्ति दूसरे प्राणियों के हिताहित को नहीं देखता। वह अपनी भोगेच्छा की पूर्ति के लिए उपयुक्त - अनुपयुक्त कार्य करते हुए संकोच नहीं करता । परिणामस्वरूप पाप कर्म का बन्ध करके नरकादि गतियों में • उत्पन्न होता है और वहां विविध वेदना का संवेदन करता है। इससे स्पष्ट होता है कि जो प्राणी अज्ञान के वश वासना में आसक्त रहता है, वह नीच योनि में उत्पन्न होकर अनेक कष्टों को सहता है, संसार में परिभ्रमण करता है । भले ही, वह गृहस्थ के वेश साधु के या वेश में, जैन कुल में उत्पन्न हुआ हो या जैनेतर कुल में, विषयवासना में आसक्ति एवं दुष्कर्म में प्रवृत्ति रखना किसी के लिए भी हितप्रद नहीं है । फल भोग के समय लिंग, वेश एवं कुल का भेद नहीं किया जाता । जो व्यक्ति जैसा कर्म करता है, उसे उसके अनुरूप फल भोगना होता है। परन्तु, अज्ञान से आवृत व्यक्ति इस बात को भूल जाता है और वह अशरण..
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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