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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
रूप स्पर्शों का अनुभव करने वालों को तथा। आवंती-जितने भी। केयावती-कई एक प्राणी। लोयंसि-लोक में। आरंभजीवी-आरम्भ से जीवन व्यतीत करने वाले। च-और फिर। एव-निश्चय ही। एएसु-सावद्यारम्भप्रवृत्ति में, तथा गृहस्थों में। आरंभ जीवी-आरम्भपूर्वक आजीविका दुःखरूप होती है। इत्थवि-इस अर्हत प्रणीत संयम के स्थान में भी। बाले-राग और द्वेष से व्याप्त। परिपच्चमाणे-परितप्त होता हुआ, अथवा विषय रूप पिपासा से सन्ताप को प्राप्त होता हुआ, फिर उन विषयों में। रमइ-रमण करता है, फिर। पावेहिं-पाप। कम्मेहिं-कर्मों से सन्तप्त होता हुआ। असरणे-अशरणरूप सावद्यानुष्ठान को। सरणंति-शरण रूप। मन्नमाणे-मानता हुआ, नाना प्रकार की वेदनाओं का अनुभव करता है। इहं-इस मनुष्य लोक में। एगेसिं-कई एक की क्रोध के वशीभूत होकर। एगचरिया-एकचर्या। भवइ-होती है। से-वह विषय और कषायों के वशीभूत होकर अकेला विचरने वाला। बहुकोहे-बहुत क्रोध वाला। बहुमाणे-बहुत मान वाला। बहुमाए-बहुत माया वाला। बहुलोभे-बहुत लोभ वाला। बहुरए-बहुत कर्म रज वाला। बहुनढे-नट की भांति विषयों के लिये भ्रमण करने वाला। बहुसढे-बहुत शठता वाला। बहुसंकप्पे-बहुत संकल्पों वाला, हो जाता है, तथा। आसवसत्ती-आश्रव में आसक्त। पलिउच्छन्ने-कर्मों से आच्छादित। उठ्ठियवायं-चारित्र रूप धर्मवाद में उद्यत हुआ 2। वायमाणे-इस प्रकार बोलता हुआ। मा-मत। मे-मुझे। केइ-कोई।
अदक्खू-पाप करते हुए को देखें, तथा वह। अन्नाण पमाय दोसेणं-अज्ञान व प्रमाद के दोष से पाप कर्म करता है। सययं-निरन्तर । मूढ-मूढ-मोह से उदय से। धम्म-धर्म को। नाभिजाणइ-नहीं जानता। अट्टा-विषय कषायों से पीडित। पया-जीव। माणव-हे मनुष्य! कम्मकोविया-कर्मकोविद अर्थात् अष्टविध कर्मों के अनुष्ठान में चतुर । जे-जो। अणुवरया-पाप कर्म से अनिवृत्त हैं। अविज्जाएअविद्या से। पलिमुक्खमाहु-सर्व प्रकार से मोक्ष मानते हैं। आवट्टमेव-संसार चक्र के आवर्त में ही। अणुपरियति -बार-बार अनुवर्तन करते हैं, अर्थात् जन्म-मरण के चक्र में ही फंसे रहते हैं। त्तिबेमि-इस प्रकार मैं कहता हूँ।
मूलार्थ-भव्य जीवो! तुम देखो! कई एक विषयासक्त व्यक्ति नरकादि में वेदना पाते हुए नरकादि स्थानों में पुनः-पुनः दुःख रूप स्पर्श का अनुभव करते हैं,