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का कारण है। अतः जो साधक कषाय लोक पर विजय पा लेता है, वह सर्व लोक विजेता बन कर सिद्धत्व को पा लेता है।
प्रथम उद्देशक का प्रथम सूत्र है, 'जे गुणे, से मूलट्ठाणे जे मूलट्ठाणे से गुणे' अर्थात् जो गुण है वह मूल स्थान है और जो मूल स्थान है वह गुण है। इस गूढ वाक्य का भाव यह है कि जहां गुण-विषय-कषाय है वहां मूल-स्थान-आवर्त (संसार) है और जहां संसार है, वहां कषाय है। यदि ये गुण न हों तो जीव में कषाय, आसक्ति, तृष्णा आदि भावों का उदय होता ही नहीं और जब इनका उदय नहीं होता है, तब उस जीव के संसार में परिभ्रमण करने का प्रश्न ही नहीं उठता। अतः गुण-विषय-कषाय ही संसार है। वस्तुतः संसार का आधार गुण है और इन्हीं कारणों से व्यक्ति स्वजन-स्नेहियों की आसक्ति में फंसता है। इसीलिए इस उद्देश में बताया गया है कि साधक को परिजनों की आसक्ति का परित्याग करके साधना में संलग्न रहना चाहिए।
द्वितीय उद्देशक में संयम पथ पर दृढ़ रहने का उपदेश दिया गया है। संयम-साधना की कठिनता के कारण उसमें अरति पैदा होना स्वाभाविक है। परन्तु परीषहों से घबरा कर साधना-पथ से भ्रष्ट होने वालों के लिए कहा गया है-"वे मंद हैं, मोह से ग्रथित हैं। धीर, वीर और मेधावी पुरुष अलोभ से लोभ पर विजय प्राप्त करके प्राप्त भोगों का आसेवन नहीं करता। अतः वह संसार से मुक्त-उन्मुक्त हो जाता है।"
तृतीय उद्देशक में मान का, अहं-भाव का परित्याग करने के लिए उपदेश दिया गया है- “यह जीव अनेक बार उच्च और नीच गोत्र में उत्पन्न हो चुका है। इससे न तो उसका उत्कर्ष हुआ है और न अपकर्ष ही। अतः कर्म की विचित्रता को समझ कर साधक को उच्च-गोत्र एवं ज्ञान-तप आदि उच्च क्रिया-काण्डों के मान का परित्याग कर देना चाहिए।"
चतुर्थ उद्देशक में भोगासक्त जीवों की दुर्दशा का चित्रण किया गया है। उसमें बताया गया है 'भोगेच्छा की पूर्ति तो होगी तब होगी, किन्तु आशा एवं तृष्णा के शल्य की चुभन तो उन्हें अनवरत परेशान करती ही रहेगी। अतः साधक को अप्राप्त पदार्थों की तृष्णा से परे रहना चाहिए। ____ पंचम उद्देशक में बताया गया है कि मुनि शरीर का निर्वाह करने के लिए हिंसा न करे। किन्तु जो गृहस्थ अपने एवं अपने परिवार के लिए आहार, पानी, वस्त्र, मकान आदि बनाते या खरीदते हैं, उसमें वह निर्दोष आहार-पानी ग्रहण करे। साधु