SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 56 चित्र चित्रित किया गया है। फिर भी इसे पढ़कर साधक के मन में निराशावाद का उदय नहीं होता है, बल्कि उसके मन में इससे मुक्त होने का उत्साह उत्पन्न होता है, और वह मुक्त होने का मार्ग खोजता है। इसके लिए संयम, विरति, समभाव, अप्रमाद आदि की साधना को दुःख-मुक्ति का प्रशस्त पथ बताया है। ___ प्रस्तुत उद्देशक में शाक्य-बौद्धादि कुछ ऐसे श्रमणों का भी उल्लेख किया गया है, जो अपने आपको त्यागी श्रमण कहते हुए भी विभिन्न शस्त्रों के द्वारा रात-दिन पृथ्वी काय की हिंसा में संलग्न रहते है। संसार में कुछ श्रमण ही ऐसे हैं, जो सर्वज्ञोपदिष्ट मार्ग को भली-भांति जान सकते हैं। वे इस बात को जानते हैं कि इस संसार में हिंसा ग्रन्थि-गांठ है, बन्धन है, मोह है, मार है और नरक है। तीसरे उद्देशक में यह बताया गया है कि साधक को आत्मा का, लोक का अपलाप नहीं करना चाहिए। जो आत्मा का अपलाप करता है, वह लोक का अपलाप करता है और जो लोक का अपलाप करता है वह आत्मा का अपलाप करता है। इन सभी उद्देशकों में अग्निकाय, अप्काय आदि जीवों की हिंसा करने का कटु फल बताया गया है और साधक को उससे निवृत्त होने का उपदेश दिया है। द्वितीय अध्ययन द्वितीय अध्ययन का नाम लोक-विजय है। इसमें 6 उद्देशक हैं। इसमें यह बताया गया है कि लोक-संसार का बन्धन कैसे होता है और उससे छुटकारा कैसे पाना चाहिए। नियुक्तिकार ने छहों उद्देशकों के अर्थ का इस प्रकार वर्गीकरण किया है-1. स्वजन-स्नेहियों के साथ निहित आसक्ति का परित्याग, 2. संयम में प्रविष्ट शिथिलता का परित्याग, 3. मान और अर्थ (परिग्रह) में सार-दृष्टि का त्याग, 4. भोगासक्ति का निषेध, 5. लोक निश्रा-लोक के आश्रय से संयम का परिपालन और 6. लोक आश्रय से संयम का निर्वाह होने पर भी लोक में ममत्व भाव नहीं रखना। इससे यह स्पष्ट होता है कि इस अध्ययन का नाम सार्थक है। लोक शब्द की विभिन्न प्रकार से व्याख्या की गई है। प्रस्तुत अध्ययन में लोक का अर्थ है-संसार । वह द्रव्य और भाव से दो प्रकार का है। क्षेत्रादि लोक को द्रव्य लोक कहते हैं और कषाय को भाव लोक कहते हैं और कषाय लोक ही द्रव्य लोक
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy