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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध इय सच्चंसि परि (चिए) चिट्ठसु साहिस्सामो नाणं, वीराणं समियाणं, सहियाणं सया जयाणं संघडदंसिणं, आओवरयाणं अहातहं लोयं समुवेहमाणाणं किमत्थि उवाही? पासगस्स न विज्जइ नत्थि त्तिबेमि॥141॥ ___ छाया-ये खलु भो! वीराः ते समिताः सहिताः सदायताः निरन्तरदर्शिनः आत्मोपरताः यथातथं लोकम् उपेक्षमाणाः प्राच्या प्रतीच्या दक्षिणायाम् उत्तरस्यामिव सत्ये परिचिते तस्थुः कथयिष्यामि ज्ञानं वीराणां समितानां, सहितानां दायतानां निरन्तर स दर्शिनां आत्मोपरतानां यथातथ्यं लोकं समुत्प्रेक्षमाणानां किमस्ति उपाधिः पश्यकस्य न विद्यते नास्ति, इति ब्रवीमि। __ पदार्थ-खलु-वाक्यालंकार में है। भो-हे आर्य! जे-जो। वीरा-कर्म विदारण में समर्थ। ते-वे। समिया-समितियों से युक्त। सहिया-ज्ञान से युक्त। सयाजया-सदा यत्न करने वाले। संघड दंसिणो-निरन्तर देखने वाले। आओवरयापाप कर्मो से उपरत हुए। अहातह-यथा तथा। लोयं-लोक को। उवेहमाणा-देखते हुए। पाईणं-पूर्व दिशा में। दाहिणं-दक्षिण दिशा में। पडिणं-पश्चिम दिशा में। उइणं-उत्तर दिशा में। इय-इस प्रकार। सच्चंसि-सत्य में। परिचिए-परिचित विषय में। परिचिट्ठसु-ठहरे हुए स्थिति वाले। सहिस्सामो-मैं तुम्हारे प्रति कहूँगा-सुधर्मा स्वामी अपने शिष्यों के प्रति कहते हैं। हे शिष्यो! मैं तीन काल के तीर्थंकरों का अभिप्राय तुम्हारे प्रति कहूँगा तुम सुनो किनका। वीराणं-वीरों का। समयाणं-समिति वालों का। सहियाणं-ज्ञानयुक्तों का। सयाजयाणं-सदा यत्न करने वालों का। संघडदंसिणं-निरन्तर देखने वालों का। आओवरयाणं-जिनका आत्मा पापों से निवृत्त है। अहातह-यथा-तथा। लोयं-लोक के। समुवेहमाणाणंसमुत्प्रेक्षया वालों का। नाणं-जो ज्ञान है। किमत्थि उवाही-क्या केवल ज्ञानी को भी कर्म जनित उपाधि है? नत्थि-नहीं होती हैं। तिबेमि-इस प्रकार मैं कहता हूँ।
मूलार्थ-हे आर्यो? वे वीर पुरुष जो समितियों से युक्त ज्ञान से संयुक्त सदा यत्नशील निरन्तर देखने वाले पूर्व-पश्चिम, दक्षिण और उत्तर दिशा में व्यवस्थित, स्थिर सत्य व तप संयम में अवस्थित थे, मैं उन वीर पुरुषों का ज्ञान तुम्हारे प्रति सुनाऊंगा जो कि समित-समितियुक्त ज्ञान-युक्त सदा यत्नशील, निरन्तर देखने