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चतुर्थ अध्ययन, उद्देशक 4
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सम्यक्त्व का स्पर्श करने के पश्चात् मिथ्यात्व में चले जाने पर भी वह अधिक से अधिक अपार्द्ध पुद्गल परावर्त तक मिथ्यात्व में रह सकता है। उसके बाद तो वह अवश्य ही सम्यक्त्व को प्राप्त करके मुक्ति की ओर पग बढ़ाएगा ही। ___ जिन जीवों को सम्यक्त्व की प्राप्ति हो चुकी है, वे किसी भी प्राणी को मारने, काटने एवं पीड़ा पहुंचाने आदि आरम्भ एवं हिंसा जन्य कार्यों से अलग रहते हैं। वे आस्रव के द्वार को रोकते हुए सदा संयम-साधना में संलग्न रहते हैं। इसलिए उन्हें निष्कर्मदर्शी कहा गया है। उनकी दृष्टि संवरमय होती है। वे कर्म के दुःखद फल को जानते हुए उससे-कर्म बन्ध से सदा बचकर रहने का प्रयत्न करते हैं
वह प्रज्ञावान् भी होगा ही और जो प्रज्ञावान् होगा वह बुद्ध-बोध युक्त होगा ही।
यह सत्य है कि प्रत्येक कर्म फल युक्त होता है, कोई भी कर्म निष्फल नहीं होता। उसमें इतना अन्तर हो सकता है कि कुछ कर्म विपाकोदय रूप से वेदन किए जाते हैं तो कुछ कर्म प्रदेशोदय से ही अनुभव कर लिए जाते हैं। कर्म आगमन के मार्ग को आस्रव कहते हैं। मिथ्यात्व, अव्रत, कषाय, प्रमाद और योग इन पांच कारणों से कर्म का बन्ध होता है। जो व्यक्ति जीवाजीव आदि पदार्थों का ज्ञाता है, वह आस्रव से निवृत्त होने का प्रयत्न करता है।
तत्त्वों को जानने वाले व्यक्ति को प्रज्ञावान् कहते हैं। वह आगम के द्वारा संसार एवं संसार परिभ्रमण के कारण कर्म तथा कर्म-बन्ध के कारण को भली-भांति जानता है। प्रस्तुत सूत्र में आगम के लिए वेद शब्द का प्रयोग किया गया है। वेद का अर्थ है-जिसके द्वारा संपूर्ण चराचर पदार्थों का ज्ञान हो, उसे वेद कहते हैं और वे सर्वज्ञोपदिष्ट आगम हैं। उसके परिज्ञाता उसके अनुरूप आचरण करने वाले साधक कहलाते हैं।
निष्कर्ष यह निकला कि आत्मविकास एवं साध्य को सिद्ध करने का मूल सम्यक्त्व है। अतः मुमुक्षु पुरुष को सम्यक्त्व प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। इस सम्बन्ध में सभी तीर्थंकरों का यही अभिमत है, इसी बात को बताते हुए सूत्रकार कहते हैं
मुलम्-जे खलु भो! वीरा ते समिया सहिया सयाजया संघडदंसिणो आओवरया अहातहं लोयं उवेहमाणा, पाईणं पडिणं दाहिणं उईणं