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________________ चतुर्थ अध्ययन, उद्देशक 4 वाले पापों से उपरत, और यथावस्थित लोक के स्वरूप को देखने वाले हैं, वे कहते हैं सत्य में, संयम में ठहरो ? क्या केवल ज्ञानी को भी कर्म जनित उपाधि होती है, अर्थात् नहीं होती, इस प्रकार मैं कहता हूं । 567 हिन्दी - विवेचन अतीत, अनागत और वर्तमान तीनों काल में होने वाले तीर्थंकर सत्य और संयम की साधना से कर्मों का नाश करते हैं । सत्य किसी एक देश, वस्तु विशेष या काल विशेष में सीमित नहीं, अपितु समस्त लोक व्यापी है और सब काल में स्थित रहता है । अतः सभी तीर्थंकरों के उपदेश में एकरूपता रहती है। तीर्थंकर सम्यक्त्व को मुक्ति का मूल कारण बताते हैं, क्योंकि सम्यक्त्व प्रकाश में अपना विकास करता हुआ व्यक्ति सब कर्मों का नाश कर देता है । अतः इस प्रयत्न में संलग्न व्यक्ति ही वीर कहलाता है । वह वीर साधक पांच समिति और तीन गुप्ति की साधना से ज्ञानवारण कर्म को अनावृत करके विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करता है और आयु कर्म के क्षय के साथ समस्त कर्म आवरण को नष्ट करके निरावरण आत्मस्वरूप को प्राप्त करता हैं। चार घातिकर्मों को क्षय करने पर आत्मा में अनन्त चतुष्टय ज्ञान, दर्शन सुख और बल-वीर्य शक्ति का उदय होता है । उस निरावरण ज्ञान के प्रकाश में वह सारे संसार एवं लोक में स्थित सभी तत्त्वों को यथार्थ रूप से देखने लगता है। उससे संसार . का कोई रहस्य गुप्त नहीं रहता और वह महापुरुष कर्मों के बन्धन से भी मुक्त हो जाता है। इससे यह स्पष्ट हुआ कि सम्यग् ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना के बल पर वह कर्मों के क्षय करने में समर्थ होता है और एक दिन आत्मा विकास की चरम सीमा - 14वें गुणस्थान को लांघकर अपने साध्य - सिद्ध अवस्था को पा लेता है । अतः मुमुक्षु पुरुष को रत्नत्रय की आराधना में प्रमाद नहीं करना चाहिए, अर्थात् अप्रमत्त भाव से संयम का परिपालन करना चाहिए। 'त्तिबेमि' का अर्थ पूर्ववत् समझें । ॥ चतुर्थ उद्देशक समाप्त ॥ के
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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