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चतुर्थ अध्ययन, उद्देशक 4
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का यथार्थ बोध होने पर ही वह उस पथ पर सुगमता से चल सकेगा और मार्ग में आने वाली कठिनाइयों को भी दूर कर सकेगा, अतः जिसे उस पथ का बोध नहीं है, वह संसार की हवा लगते ही इधर-उधर भटक जाता है। इसी कारण उसे तीर्थंकर की आज्ञा का भी लाभ प्राप्त नहीं होता, क्योंकि न तो उसे उस मार्ग का बोध ही है
और न उस पथ के प्ररूपक पर निष्ठा ही है, ऐसी स्थिति में उसे लाभ कैसे मिल सकता है?
ऐसी आत्मा को न पीछे बोधि लाभ हुआ है, न अब होता है और न भविष्य में होगा। इस बात को बताते हुए सूत्रकार कहते हैं
. मूलम्-जस्स नत्थि पुरा पच्छा मज्झे तस्स कुओ सिया? से हु पन्नाणमंते बुद्धे आरंभोवरए, सम्ममेयंति पासह, जेण बंधं वहं घोरं परियावं च दारुणं पलिछिंदिय बाहिरगं च सोयं, निक्कमदंसी, इह मच्चिएहिं, कम्माणं सफलं दळूण तओ निज्जाइ वेयवी॥140॥
छाया-ग्रस्य नास्ति पुरा पश्चात् मध्ये तस्य कुतः स्यात्? स खलु प्रज्ञानवान् बुद्धः आरम्भोपरतः सम्यगेतत् पश्यतः येन बन्धं वधं घोरं परितापंच दारुणं परिच्छिन्द्य बाह्यं च स्रोतः निष्कर्मदर्शी इह मत्र्येषु कर्मणां सफलं दृष्ट्वा ततः निर्याति वेदवित्। · पदार्थ-जस्स-जिसको। पुरा-पूर्वकाल में सम्यक्त्व का लाभ। नत्थि-नहीं हुआ और। पच्छा-ना ही आगामी काल में सम्यक्त्व का लाभ होगा तो फिर। तस्स-उसको। मज्झे-मध्य जन्म में। कुओ-कहां से। सिया-सम्यक्त्व का लाभ होगा। हु-जिससे भोगों से निवृत्त हो गया है, इसलिए। से-वह। पन्नाणमन्तेप्रज्ञावान है। बुद्धे-तत्त्वों को जानने वाला है। आरम्भोवरए-आरम्भ से उपरत हो गया है, हे शिष्यो! तुम। सम्ममेयन्ति-सम्यग् शोभन रूप इस सम्यक्त्व को। पासह-देखो क्योंकि। जेण-जिस कारण से। बंध-बन्ध को। वहं-वध को। घोरं-घोर रूप। च-और। परियावं-परिताप को। दारुण-दारुणं रूप असहनीय को। पलिछिन्दिय-दूर करके। च-पुनः। बाहिरंग-बाहर के धन-धान्यादि। सोयं-स्रोत को भी दूर कर दिया है। निक्कमदंसी-मोक्ष वा संवर मार्ग के देखने