________________
श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
बंधणे आणभिक्कंतसंजोए तमसि अवियाणओ आणाए लंभो नत्थि,
त्तिबेमि॥19॥
छाया - नेत्रैः परिच्छिन्नेः आदान श्रोतोमृद्धो बालः (अज्ञ) अव्यवच्छिन्न बन्धनोऽनभिक्रान्त-संयोगः तमसि अविजानतः आज्ञायाः लाभो नास्ति, इति ब्रवीमि ।
562
पदार्थ - नित्तेहिं - चक्षु आदि इन्द्रियों को विषयों से निवृत्त करके । पलिच्छिन्नेहिं - फिर मोह कर्म के उदय से । आयाणं सोय गढिए- कर्म आने के स्रोत में आसक्त, वह । बाले - अज्ञानी जीव । अव्वोच्छिन्नबंधणो - जिसने कर्म बन्ध का छेदन नहीं किया है। अणाभिक्कंतं संजोए - जिसने संयोग का त्याग नहीं किया है । तमसि - जो मोह अन्धकार में स्थित है। अवियाणओ - जो मोक्ष के उपाय - साधन को नहीं जानता है, उस व्यक्ति को । आणाए - तीर्थंकर की आज्ञा का। लंभो नत्थि-लाभ प्राप्त नहीं होता । तिबेमि - इस प्रकार मैं कहता हूँ ।
1
मूलार्थ - जो व्यक्ति विषयों से इन्द्रियों का निरोध करने पर भी मोह कर्म के उदय से आस्रव में आसक्त हो गया है और जिसने कर्म बन्ध के कारण राग-द्वेष का छेदन नहीं किया है, विषयों के संयोग को नहीं त्यागा है और जो मोह अन्धकार से बाहर नहीं निकला है तथा मोक्ष मार्ग को नहीं जानता है, वह अज्ञानी व्यक्ति तीर्थंकर की आज्ञा का लाभ नहीं उठा सकता, इस प्रकार मैं कहता हूँ ।
हिन्दी - विवेचन
प्रस्तुत सूत्र में प्रमादी मानव की मानसिक निर्बलता को बताया गया है । वह अपने आपको विषयों से निवृत्त कर लेता है और इन्द्रियों को भी कुछ समय के लिए वश में रख लेता है, परन्तु फिर से मोह कर्म का उदय होते ही विषयों में आसक्त हो जाता है। इसका कारण यह है कि उसने आस्रव एवं बन्ध के मूल कारण राग-द्वेष का उन्मूलन नहीं किया और न मोह कर्म का ही छेदन किया है। इसके अतिरिक्त उसे मोक्ष मार्ग का भी पूरा बोध नहीं है । इसी कारण वह मोह कर्म का थोड़ा-सा झोंका लगते ही अपने मार्ग से फिसल जाता है ।
इसलिए साधक को सबसे पहले साध्य एवं साधन का ज्ञान होना चाहिए। मार्ग