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चतुर्थ अध्ययन, उद्देशक 4
561 की कृशता से ही आत्म-गुणों का विकास होता है। इस अपेक्षा से आपीड़न आदि शब्दों का यह अर्थ होगा-चौथे से सातवें गुणस्थान तक आपीड़न-सामान्य तप, आठवें और नवमें गुणस्थान में प्रपीड़न-विशेष तप और दसवें गुणस्थान में निष्पीड़न-मास-क्षमण आदि तप अथवा औपशमिक श्रेणी में आपीड़न तप, क्षपक श्रेणी में प्रपीड़न तप और सूक्ष्मसंपराम आदि शैलेसि अवस्था में निष्पीड़न तप होता है। तप साधना के लिए यह शास्त्रीय पद्धति है। ___ इससे यह स्पष्ट हो गया कि असंयम का त्याग करके उपशम भाव को प्राप्त व्यक्ति तप के द्वारा कर्मों की निर्जरा करता है। जो व्यक्ति ज्ञान एवं समिति से युक्त है, वही तप एवं संयम मार्ग पर चल सकता है। साधना का, मुक्ति का, संयम का मार्ग कायरों का नहीं, वीरों का है। इसका आचरण करना सरल नहीं है। __वही व्यक्ति इस पथ पर चल सकता है, जो संसार के स्वरूप को भली-भांति जानता है और ब्रह्मचर्य से युक्त है। ब्रह्मचर्यनिष्ठ व्यक्ति कर्मों को शीघ्र ही क्षय कर देता है। परन्तु उसके पालन के लिए इन्द्रियां एवं मन को विशेष रूप से वश में रखना होता है और उन्हें वश में रखने का उपाय है-तप अर्थात् जिह्वा को नियन्त्रण में रखना। कहा भी जाता है कि-"एक इन्द्रिय-जिह्वा को भूखी रखने पर शेष चारों इन्द्रियां तृप्त रहती हैं और एक जिह्वा का पोषण करने पर चारों इन्द्रियां बुभुक्षित होकर इधर उधर उछल-कूद मचाती हैं।" .. जिह्वा के पोषण से या प्रकाम भोजन से शरीर में मांस-खून एवं चर्बी बढ़ेगी। इससे विकारं भाव जागेगा। मन एवं अन्य इन्द्रियां विषय-भोगों की ओर आकर्षित होंगी, इसलिए ब्रह्मचर्य का परिपालन करने वाले साधक के लिए यह बताया गया है कि वह तपश्चर्या के द्वारा मांस और शोणित को सुखा दे। मांस और शोणित की शक्ति निर्बल होने पर ब्रह्मचर्य की साधना भली-भांति सध सकेगी और इस प्रकार साधक कर्म क्षय करने में सहज ही सफलता प्राप्त कर लेगा।
जो साधक पूर्व आसक्ति का त्याग नहीं करता, उसकी क्या स्थिति होती है, इस संबन्ध में सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-नित्तेहिं पलिच्छिन्नेहिं आयाणसोयगढिए बाले, अव्वोच्छिन्न