SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 649
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 560 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध हो जाता है। एस-यह। पुरिसे-पुरुष। दविए-जो मोक्षगामी है, वह। आयाणिज्जेआदेय वचन वाला। वियाहिए-कहा गया है। जे-जो व्यक्ति। बंभचेरंसि-ब्रह्मचर्य में। वसित्ता-निवास करके। समुस्सयं-तप के द्वारा शरीर एवं कर्मोपचय को। धुणाइ-कृश करता है। ___ मूलार्थ-मुमुक्षु पुरुष पूर्व संयोग-असंयम का परित्याग एवं संयम को स्वीकार करके तप साधना के द्वारा योगों का दमन करे, धीरे-धीरे योगों का निरोध करते हुए उनका संपूर्ण रूप से निरोध करे। इसके लिए वह वैमनस्य रहित, भली-भांति मर्यादा पूर्वक संयम में संलग्न, समिति एवं ज्ञान से युक्त होकर संयम का परिपालन करे। मोक्षगामी वीर पुरुषों का मार्ग दुष्कर है। अतः हे शिष्य! तू तपश्चर्या के द्वारा मांस-शोणित को सुखा दे। जो साधक ब्रह्मचर्य में स्थित रहकर तप के द्वारा शरीर एवं कर्मोपचय को कृश करता है, वह संयमी, मोक्षगामी वीर और आदेय वचन वाला कहा गया है। हिन्दी-विवेचन संयम-साधना का उद्देश्य कर्म क्षय करना है और कर्म क्षय के लिए तपश्चर्या एक साधन है। इसलिए मुनि को तप के द्वारा कर्म क्षय करना चाहिए। यह तप साधना दीक्षा ग्रहण करते ही प्रारम्भ करनी चाहिए। प्रारम्भ में सामान्य रूप से तप करना चाहिए। इससे धीरे-धीरे आत्मशक्ति का विकास होगा और संयम में तेजस्विता आएगी। अतः साधु को आगमों का अध्ययन करने तक थोड़ी-थोड़ी तपश्चर्या करनी चाहिए। आगम का भली-भांति अनुशीलन-परिशीलन करने के बाद, उसके परिणामों में परिपक्वता आ जाए, तब उसे विशिष्ट तप करना चाहिए और साधना के पथ पर चलते हुए उसे यह निश्चय हो जाए कि अब शरीर शिथिल हो गया। अब यह अधिक दिन रहने वाला नहीं है, तब पूर्णतया आहार-पानी त्याग करके जीवन पर्यन्त के लिए तप स्वीकार करके शान्तिभाव से समाधि मरण को प्राप्त करे। इस तप के साथ किसी भी प्रकार इस लोक या परलोक सम्बन्धी यश-प्रशंसा एवं भौतिक सुख की कामना नहीं होनी चाहिए। निष्काम भाव से एकान्त निर्जरा की दृष्टि से किया गया तप ही कर्मक्षय करने में समर्थ होता है। तप-साधना का प्रमुख उद्देश्य कार्मण शरीर को कृश करना है। कार्मण शरीर
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy