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चतुर्थ अध्ययन : सम्यक्त्व चतुर्थ उद्देशक
तृतीय उद्देशक में निष्काम तप का वर्णन किया गया है। तप का संयम साधना के साथ सम्बन्ध है। वह भी चारित्र का एक अंग है । इसलिए प्रस्तुत उद्देशक में संयम - साधना - चारित्र का विवेचन करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-आवीलए, पवीलए, निप्पीलए जहित्ता पुव्वसंजोगं हिच्चा उवसमं, तम्हा अविमणे वीरे, सारए समिए सहिए सया जए, दुरणुचरो मग्गो वीराण अनियट्टगामीणं, विगिंच मंससोणियं, एस पुरिसे दविए वीरे, आयाणिज्जे वियाहिए, जे धुणाइ समुस्सयं वसित्ता बंभचेरंसि ॥ 138॥
छाया- - आपीडयेत्, प्रपीडयेत्, निष्पीडयेत् त्यक्त्वा पूर्व संयोगं हित्वोपशमं तस्मादविमनाः वीरः स्वारतः समितः सहितः सदा यतेत, दुरनुचरो मार्गः वीराणामनिवर्तगामिनां विवेचय मांसशोणित एष पुरुषः द्रविकः, वीरः आदानीयः व्याख्यातः यो धुनाति समुच्छ्रयं उषित्वा ब्रह्मचर्ये ।
पदार्थ - पुव्वसंजोगं - मुमुक्षु पुरुष पूर्व संजोग को । जहिता - छोड़कर । उवसमंहिच्चा - उपशम को प्राप्त कर, मन-वचन और काय योग का दमन करने के लिए । आवील- थोड़ा तप करे, फिर । पवीलए - विशिष्ट रूप से करे । निप्पीलए - उससे भी उत्कृष्ट, अर्थात् घोर तपश्चर्या करे । तम्हा - इसलिए। अविमणे - वैमनस्य से रहित । वीरे - वीर पुरुष । सारए - सम्यक् रूप से । समिए सहिए - समिति और ज्ञान से युक्त। सया-सदा। जए - संयम पालन में संलग्न रहे, क्योंकि । दुरणुचरो - जो दुष्करता से आचरित किया जाए, वह । वीराणमग्गो - वीरों का मार्ग है । अनियट्टगामीण - मोक्ष गमन का इच्छुक । विगिञ्च - -तप के द्वारा। मांस सोणियं -मांस और शोणित को अलग कर देता है, अर्थात् समस्त कर्मों को नष्ट करके शरीर - रहित
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