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चतुर्थ अध्ययन, उद्देशक 2
कम्मेहिं नो चिट्ठ परिचिट्ठइ, एगे वयंति अदुवावि नाणी, नाणी वयंति अदुवा वि एगे ||133 ॥
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छाया - इहैकेषां तत्र तत्र संस्तवः भवति अधः औपपातिकान् स्पर्शान् प्रतिसंवेदयन्ति, चिट्ठ-भृशं कर्मभिः क्रूरैः चिट्ठ-भृशम् परितिष्ठति अतिष्ठ क्रूरैः कर्मभिः नो तिष्ठं परितिष्ठति, एके- वदन्ति अथवापि ज्ञानी वदन्ति ज्ञानिनो अथवाप्येके ।
पदार्थ - इह - इस संसार में । एगेसिं- कई एक - मिथ्यात्व । अविरति -प्रमाद और विषय कषायादि से युक्त । तत्थ तत्थ - उन नरकादि गतियों में यातनाओं के स्थानों में। संथवो - संस्तव - बार-बार जाने से । भवइ होता है । अहोववाइएनीचे-नरकादि गतियों में उत्पन्न होने वाले । फासे - दुःख रूप स्पर्श को । पडिसंवेयंति–प्रतिसंवेदन करते हैं, अनुभव करते हैं, कारण कि । चिट्ठ - अत्यन्त । करेहिं - क्रूर । कम्मेहिं - कर्मों के करने से | चिट्ठ - अत्यन्त । परिचिट्ठइ-दुःख स्थानों में स्थित होता है - ठहरता है किन्तु जो । अचिट्ठ- नहीं है । करेहिं कम्मेहिं- हैं-क्रूर कर्मों से युक्त तो फिर । नो चिट्ठ परिचिट्ठइ - अत्यन्त दुःख रूप स्थानों में स्थित नहीं होता, नहीं ठहरता, इस प्रकार से । एगे वयन्ति - वे एक- चौदह पूर्व के पाठी कहते हैं । अदुवावि - अथवा | नाणी - केवल ज्ञानी । अपि से - श्रुत केवली | वदंति - कहते हैं । नाणी - वयन्ति - ज्ञानी कहते हैं । अदुवावि - अथवा । एगे - कई एकश्रुत केवली भी इसी प्रकार भाषण करते हैं । तात्पर्य कि जिस भांति केवली · भगवान कहते हैं, उसी भांति श्रुत केवली भी कहते हैं ।
मूलार्थ - इस संसार में कई एक अत्यन्त क्रूर कर्म करने वाले जीव नरक तिर्यक् आदि योनियों में नाना प्रकार के दुःख रूप स्पर्शो का अनुभव करते हैं, अर्थात् अत्यन्त क्रूर कर्मों के फलस्वरूप चिरकाल तक नरक यातनाएं भोगते हैं, और जो इस प्रकार के क्रूर कर्मों का बन्ध नहीं करते हैं, वे अत्यन्त दुःख-रूप स्थानों में नहीं जाते, अर्थात् उनको नरक - यातनाएं भोगनी नहीं पड़ती। इस प्रकार कई एक अर्थात् केवली भगवान कहते हैं और श्रुत केवली भी ठीक इसी प्रकार कहते हैं तथा चतुर्दश पूर्वधारी जिस प्रकार उक्त विषय का समर्थन करते हैं, ठीक उसी प्रकार केवल ज्ञानी भी कहते हैं ।