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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
हिन्दी - विवेचन
प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि प्रमादी जीव विषय- कषाय में आसक्त रहता है। अपनी अतृप्त वासना को पूरी करने की भावना से अनेक जीवों को दुःख एवं कष्ट देता है। अपने स्वार्थ को साधने के लिए अनेक प्राणियों का निर्दयतापूर्वक वध करता है। इस प्रकार क्रूर कर्म में प्रवृत्त होकर पाप कर्म का संग्रह करता है और परिणामस्वरूप नरक-तिर्यंच आदि नीच योनियों में जन्म लेता है। इसके विपरीत जो व्यक्ति प्रमाद का सेवन नहीं करते, वे आरम्भ - समारम्भ आदि दोषों से भी बचे रहते. हैं और परिणामस्वरूप नरक आदि गतियों की वेदना को भी नहीं भोगते ।
इससे यह स्पष्ट होता है कि संसार - परिभ्रमण का कारण कर्म है । प्रमाद के आसेवन से पापकर्म का बन्ध होता है और फलस्वरूप नरक आदि योनियों में महावेदना का संवेदन करना होता है । यह कथन सर्वज्ञ पुरुषों ने अपने निरावरण ज्ञान में देखकर किया है और उसी के अनुरूप श्रुत केवलियों ने किया है। श्रुत- केवलियों की निरूपण शक्ति सर्वज्ञों जैसी ही है। अतः इस बात को मानने में किसी प्रकार का संशय नहीं करना चाहिए ।
प्रश्न हो सकता है कि जब सर्वज्ञ एवं श्रुत केवली की तत्त्व-निरूपण शैली एक समान है, तब फिर सर्वज्ञता एवं छद्मस्थता में क्या अन्तर रहा। इसका समाधान यह है कि सर्वज्ञ का ज्ञान निरावरण होता है । अतः वे बिना किसी भी सहायक के स्वयं अपनी आत्मा से लोक के समस्त पदार्थों को देखते - जानते हैं । परन्तु श्रुत केवली का ज्ञान निरावरण नहीं होता। वे सर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट तत्त्वों को हृदयंगम करके उसी का उपदेश देते हैं। इसलिए उनका उपदेश सर्वज्ञ वचनों के सदृश होता है ।
श्रुत केवली वाद-विवाद को मिटाने में समर्थ हैं। इस बात को बताते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - आवंती केयावंती लोयंसि समणा य माहणा य पुढ विवायं वयंति से दिट्ठ च णे सुयं च णे मयं च णे विण्णायं च णे उड्ढं अहं तिरियं दिसासु सव्वओ सुपडिलेहियं च - सव्वे पाणा सव्वे जीवा सव्वे भूया सव्वे सत्ता हंतव्वा अज्जा - वेयव्वा परियावेयव्वा