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________________ 540 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध उपदेशानुसार। पुढो–अलग-अलग जीव, अजीव, कर्म-बन्ध-संवरादि स्थानों का। पवेइयं-प्रतिपादन किया है। मूलार्थ-जो आस्रव के स्थान हैं, वे निर्जरा के भी स्थान हैं; जो निर्जरा के स्थान हैं, वे कर्म-बन्ध के भी स्थान हैं। जो व्रतों के स्थान हैं वे कर्म आगमन के स्थान भी हैं और जो कर्म-आगमन के स्थान हैं, वे व्रतों के भी स्थान हैं। इन पदों को समझकर तथा भगवान की आज्ञा के अनुसार लोक के स्वरूप का विचार करके कर्मबन्ध एवं उनकी निर्जरा आदि के स्थानों का अलग-अलग वर्णन किया है। हिन्दी-विवेचन आस्रव एवं संवर के लिए स्थान एवं क्रिया की अपेक्षा भावना का मूल्य अधिक है। जो स्थान कर्मबन्ध का कारण है, वही स्थान विशुद्ध भावना वाले साधक के लिए निर्जरा, संवर एवं संयम-साधना का कारण बन जाता है। जो स्थान निर्जरा, संवर एवं साधना का सुरम्य स्थल है, वह परिणामों की अशुद्धता के कारण कर्मबन्ध का कारण बन जाता है। इससे स्पष्ट परिलक्षित होता है कि मनुष्यलोक में कोई भी स्थान ऐसा नहीं है कि जहां आस्रव, बंध, संवर एवं निर्जरा की साधना नहीं की जा सकती है। भावना के परिवर्तित होते ही आस्रव का स्थान संवर-साधना का स्थान बन जाता है और संवर की साधना-भूमि आस्रव का स्थान ग्रहण कर लेती है। तो आस्रव एवं संवर भावना-परिणामों की अशुद्ध एवं विशुद्ध भावना पर आधारित है। इस चतुर्भगी को उदाहरण द्वारा भी स्पष्ट किया जाता है। ___1-सम्यग्दृष्टि साधक जब वैराग्य-भाव से आत्म-चिन्तन में गोते लगाने लगता है, तो उस समय आस्रव-कर्मबन्ध का स्थान भी उसके लिए संवर या निर्जरा का साधनास्थल बन जाता है। भरत चक्रवर्ती शीशमहल में शृंगार करने गये थे। शृंगार करने के अनन्तर अकस्मात् उनकी उँगली की मुद्रिका गिर पड़ी। सारा शृंगार फीका सा लगने लगा। बस, भावना परिवर्तित हो गई। बाह्य सजावट में लगा हुआ ध्यान आत्म-चिन्तन को ओर मोड़ खा गया और धीरे-धीरे शरीर से शृंगार का आवरण हटने लगा और उसके साथ ही आत्मा से कर्म का आवरण भी हटता गया और परिणामस्वरूप वहीं शीशमहल में भरत को निरावरण केवल ज्ञान प्राप्त हो गया। 2-अज्ञानी व्यक्ति दुर्भावना के वश निर्जरा के स्थान में पापकर्म का बन्ध कर.
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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