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चतुर्थ अध्ययन : सम्यक्त्व
द्वितीय उद्देशक
प्रथम उद्देशक में सम्यक्त्व-श्रद्धा का विवेचन किया गया है। उसका प्रतिपक्षी मिथ्यात्व है। अतः मिथ्यात्व के हटने पर ही सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है और मिथ्यात्व का नाश सम्यग्ज्ञान से होता है। अतः प्रस्तुत उद्देशक में सम्यग्ज्ञान का वर्णन किया गया है।
संसार-परिभ्रमण का कारण बन्ध है और संसार-समाप्ति का कारण संवर एवं निर्जरा है। इसलिए साधक को इस बात का बोध अवश्य होना चाहिए कि किस भावना से बन्ध होता है और किस से बन्ध रुकता है, अर्थात् संवर की साधना सधती है। इसी बात को बताते हुए सूत्रकार कहते हैं. मूलम्-जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा से आसवा। जे अणासवा ते अपरिस्सवा, जे अपरिस्सवा ते अणासवा। एए पए संबुज्झमाणे लोयं च आणाए अभिसमिच्चा पुढो पवेइयं॥131॥
छाया-ये आस्रवाः ते परिस्रवाः, ये परिस्रवाः ते आस्रवाः। ये अनास्रवा ते अपरिस्रवाः ये अपरिस्रवाः ते अनास्रवाः। एतानि पदानि संबुध्यमानः लोक च आज्ञयाप्यभिसमेत्य पृथक् प्रवेदितम्।
पदार्थ-जे-जो। आसवा-आस्रव-कर्मबन्ध के स्थान हैं। ते-वे ही। परिस्सवा-निर्जरा के भी स्थान हैं। जे-जो। परिस्सवा-निर्जरा के स्थान हैं। ते-वे ही। आसवा-आस्रव के भी स्थान हैं। जे-जो। अणासवा-संवर के स्थान हैं। ते-वे। अपरिस्सवा-कर्म-आगमन के स्थान भी हैं। जे-जो। अपरिस्सवाकर्म-आगमन के स्थान हैं। ते-वे अणासवा-संवर के भी स्थान हैं। एए पए-इन पदों के अर्थ को। संबुज्झमाणे-समझते हुए। च-और। लोयं-लोक के स्वरूप को। अभिसमिच्चा-विचार कर। आणाए-भगवान की आज्ञा से भगवान के