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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
मूलार्थ - जिस साधक को विशिष्ट ज्ञान प्राप्त हो गया है, वह धैर्यवान यत्न-पूर्वक सदा मोक्ष-मार्ग की साधना में संलग्न रहता है । हे आर्य! तू प्रमादी जीवों की स्थिति को देख ! जो रात - दिन धर्म से बाहर विषयों में आसक्त हैं, उन्हें देखकर, तू स्वयं प्रमाद का त्याग करके विवेकपूर्वक संयम - साधना में पुरुषार्थ कर, ऐसा मैं हूं।
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हिन्दी - विवेचन
प्रस्तुत सूत्र में प्रमत्त और अप्रमत्त व्यक्ति के जीवन का विश्लेषण किया गया है । अप्रमत्त व्यक्ति सहिष्णु होता है । वह बाह्य कष्टों से घबराकर संयम मार्ग का त्याग नहीं करता, अपितु धैर्यपूर्वक कष्टों को सहन कर लेता है । भयंकर परीषह भी उसके मन को विचलित नहीं कर सकते, क्योंकि उसकी दृष्टि अंतर्मुखी होती है। आत्मसाधना में तल्लीन वह साधक बाहरी जीवन को भूल जाता है । उसे सुख-दुःख का संवेदन नहीं होता ।
प्रमादी जीव की स्थिति इससे विपरीत है । उसकी दृष्टि शरीर एवं भौतिक पदार्थों पर लगी रहती है। वह रात-दिन शरीर को शृङ्गारने, परिपुष्ट बनाने एवं भौतिक सुखों की अभिवृद्धि करने का उपाय ढूंढता रहता है । उसका चिन्तन एवं प्रयत्न बाह्य सुखों को बढ़ाने तक ही सीमित रहता है। इसलिए वह अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए दूसरों के स्वार्थ को, सुख को लूटने लगता है। इसलिए उसके जीवन को धर्म से बाहर कहा गया है और साधक को सावधान किया गया है कि वह प्रमादी के आरम्भमय जीवन एवं उसके दुःखद परिणाम को जानकर उससे बचने का प्रयत्न करे, अर्थात् अपनी शक्ति संयम साधना में लगाए ।
'त्तिबेमि' का अर्थ पूर्ववत् समझें ।
॥ प्रथम उद्देशक समाप्त ॥