________________
537
चतुर्थ अध्ययन, उद्देशक 1 हैं, वे अत्यन्त आसक्ति रखने वाले मूर्छित और इन्द्रियों के अर्थों में लीन होते हुए बार-बार एकेन्द्रियादि जाति में परिभ्रमण करते हैं। हिन्दी-विवेचन
विषयेच्छा से मन में पाप-भावना उबुद्ध होती है और उस तृष्णा एवं आकांक्षा को पूरी करने के लिए मनुष्य आरम्भ-समारम्भ में प्रवृत्त होता है। अतः जिस व्यक्ति के मन में भोगेच्छा नहीं होती है, विषयों की तृष्णा एवं आकांक्षा नहीं रहती है, उसके मन में पाप-भावना भी नहीं जागती और परिणामस्वरूप वह सावद्य कार्य में प्रवृत्त भी नहीं होता। इससे स्पष्ट है कि लोकैषणा, विषयेच्छा ही पाप एवं सावध कार्य का कारण है। ऐसा सर्वज्ञ भगवान ने देखा-जाना है। सर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट होने के कारण इस मार्ग में सन्देह का अवकाश नहीं है। अतः साधक को लोकैषणा का त्याग करना चाहिए। __जो.व्यक्ति विषयेच्छा का त्याग नहीं करते, रात-दिन भोगों में आसक्त रहते हैं, वे पाप-कर्मों का बन्ध करते हैं और परिणामस्वरूप एकेन्द्रिय आदि योनियों में परिभ्रमण करते रहते हैं। इस प्रकार वे दुःख के प्रवाह में बहते रहते हैं। - संसार की यथार्थ स्थिति को जानकर मनुष्य को इन दुःखों से छुटकारा पाने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। प्रश्न हो सकता है कि किस प्रकार का प्रयत्न करे। इस का समाधान करते हुए सूत्रकार कहते हैं...मूलम्-अहो अ राओ य जयमाणे धीरे सया आगयपण्णाणे पमत्ते बहिया पास अप्पमत्ते सया परिक्कमिज्जासि, त्तिबेमि॥130॥ ___छाया-अहश्च रात्रि च यतमानः धीरः सदागतप्रज्ञानः प्रमत्तान् बहिः पश्य! अप्रमत्तः सन् सदा पराक्रमेथाः।
पदार्थ-अहो-दिन। य-और। राओ-रात्रि । य-समुच्चयार्थ में। जयमाणेयत्न करता हुआ। धीरे-धैर्यवान पुरुष। सया-सदा। आगयपण्णाणे-जिसको विशिष्ट ज्ञान प्राप्त हो गया है। बहिया पमत्ते-धर्म से बाहर प्रमादी लोगों को। पास-तू देख, और। अप्पमत्ते-अप्रमादी होकर। सया-सदा-उपयोग पूर्वक। परिक्कमिज्जासि-संयम-पालन में पुरुषार्थ कर। तिबेमि-इस प्रकार मैं कहता हूँ।