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चतुर्थ अध्ययन, उद्देशक 2
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लेता है। एक दिन नागश्री ब्राह्मणी ने भूल से ककड़ी के स्थान में कड़वे तुम्बे की सब्जी बना ली। जब चाखने पर उसे तुम्बे की कटुता का ज्ञान हुआ तो उसने उसे एक ओर रख दिया और तुरन्त दूसरी सब्जी बना ली। कुछ देर पश्चात् एक-एक महीने की तपस्या करने वाले धर्मरुचि मुनि उसके यहां भिक्षार्थ आए और तब नागश्री ने उस तुम्बे को फेंकने के लिए बाहर जाने के कष्ट से बचने तथा घर वालों से अपने अज्ञान को छिपाने के लिए सारी सब्जी मुनि के पात्र में डाल दी। मुनि को दिया जाने वाला दान यद्यपि निर्जरा का कारण था। परन्तु उसके दुष्ट परिणामों के कारण वह नागश्री के कर्मबन्ध का कारण बन गया।
___3-जो अनास्रव-व्रत विशेष या संयम-साधना संवर एवं निर्जरा का स्थान है, वह साधना के सुरम्य भाव स्थल में स्थिर होकर साधक सारे कष्टों को नष्ट कर देता है। परन्तु भावना की अस्थिरता एवं अविशुद्धता के कारण व्यक्ति निर्जरा के स्थान में कर्मबन्ध कर लेता है। कुण्डरीक राजर्षि का उदाहरण इसी गिरावट का प्रतीक है। जीवन के अन्तिम दिनों में वे वासना के प्रवाह में बह गए और रात-दिन उसी के चिन्तन में लगे रहे। एक दिन वेष त्याग कर फिर से राजसुख भोगने लगे और अति भोग के कारण भयंकर व्याधि से पीड़ित होकर तीन दिन में काल करके सातवीं नरक में जा पहुंचे। जो संयम कर्मनिर्जरा का स्थान था, परन्तु भावना में विकृति आते ही वह कर्मबन्ध का स्थान बन गया।
4-जो पापकर्म के स्थान हैं, शुभ अध्यवसायों के कारण वे निर्जरा के स्थान बन जाते हैं, चिलायती पुत्र बांस पर नाटक कर रहा है। निकट भविष्य में उसकी पत्नी होने वाली कन्या ढोलक बजा रही थी। दर्शक उसके नृत्य-कौशल को देखकर वाह-वाह पुकार रहे थे, परन्तु राजा का ध्यान नट के नृत्य पर नहीं, अपितु उस कन्या पर लगा हुआ था। राजा उसके सौंदर्य पर मुग्ध हो गया था। वह उसे अपनी रानी बनाना चाहता था। इसलिए वह चाहता था कि किसी प्रकार यह नट नीचे गिर कर समाप्त हो जाए तो इस कन्या को मैं अपने अधिकार में कर लूं। उधर वह नट राजा को प्रसन्न करके धन पाने के लिए बार-बार बांस पर चढ़-उतर रहा था। फिर भी उसे पारितोषक नहीं मिल रहा था। इतने में पास के घर में एक मुनि को भिक्षा लेते देख कर उसकी भावना में परिवर्तन आया, और परिणामस्वरूप धन एवं भोग-विलास की