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________________ चतुर्थ अध्ययन : सम्यक्त्व प्रथम उद्देशक प्रस्तुत अध्ययन का नाम है-सम्यक्त्व। तत्त्वार्थ की श्रद्धा करने को सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शन कहते हैं। सम्यक्त्व-यथार्थ श्रद्धा का महत्त्व बताते हुए नियुक्तिकार ने कहा है-जैसे सारे प्रयत्न करने पर भी अन्धा व्यक्ति शत्रु पर विजय नहीं पा सकता, उसी प्रकार मिथ्यात्व संपन्न व्यक्ति धन-वैभव एवं परिजनों का त्याग करके, व्यवहार से निवृत्ति मार्ग को स्वीकार करके तथा तप एवं कायक्लेश आदि अनेक कष्ट उठाकर भी वह राग-द्वेष रूपी शत्रु को परास्त करके मुक्ति नहीं पा सकता। अतः कर्म-शत्रु पर विजय प्राप्त करने के लिए श्रद्धा-सम्पन्न होना आवश्यक है। श्रद्धा-युक्त व्यक्ति के ही ज्ञान, तप और चारित्र सफल होते हैं, मोक्ष के कारणभूत होते हैं और सम्यक्त्व को स्पर्श करने के अनन्तर ही क्रमशः उन्नति करके तीर्थंकर आदि पद की प्राप्ति सम्भव है। इसलिए जैन दर्शन में सम्यक्त्व का महत्त्वपूर्ण स्थान है। हम यों भी कह सकते हैं कि सम्यक्त्व मोक्ष-साधना का मूल कारण है। इसी कारण आगमों में मनुष्यत्व, शास्त्र-श्रवण, संयम-परिपालन आदि को दुर्लभ कहा है। अस्तु, श्रद्धा साधना का प्राण है, जीवन है। प्रश्न हो सकता है कि किस बात पर श्रद्धा की जाए और कौन-से तत्त्वों पर विश्वास रखा जाए। प्रस्तुत अध्ययन में इसी प्रश्न का समाधान किया गया है। इस अध्ययन के प्रथम उद्देशक के पहले सूत्र में साधना के मूल मंत्र, श्रद्धा रखने के तत्त्व एवं जैन दर्शन के उद्देश्य को स्पष्ट कर दिया है। वह सूत्र इस प्रकार है मूलम्-से बेमि जे अईया, जे य पडुप्पन्ना, जे आगमिस्सा अरहंता भगवंतो ते सव्वे एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं पण्णविंति एवं परूविंति-सव्वे पाणा, सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता, न 1. सद्धा परम दुल्लहा। -उत्तराध्ययन सूत्र 3, 9
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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