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________________ 530 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध हिन्दी - विवेचन प्रस्तुत सूत्र में कषायों के कटु परिणाम को बताया गया है। ये ही संसार - परिभ्रमण एवं दुःख-प्रवाह को बढ़ाने वाले हैं। अतः बुद्धिमान वही है, जो इनसे निवृत्त हो जाता है | तीर्थंकर भगवान का यही उपदेश है । वे असंयम रूप शस्त्र से रहित होते हैं। अतः वे संसार का अन्त करने वाले एवं उपाधि - रहित माने गए हैं । जिस वस्तु को ग्रहण किया जाए, उसे उपाधि कहते हैं । यह दो प्रकार की है - 1 - द्रव्य उपाधि और 2 - भाव उपाधि | स्वर्णादि भौतिक साधन-सामग्री को द्रव्य उपाधि कहते हैं और अष्ट कर्म को भाव उपाधि कहते हैं । सर्वज्ञ भगवान में द्रव्य उपाधि तो होती ही नहीं और भाव उपाधि में उन्होंने चार घातिकर्मों का क्षय करं दिया है। इसलिए अवशिष्ट चार कर्म भी कर्मबन्धन के कारण नहीं बनते। केवल आयु कर्म के रहने तक उनका अस्तित्व मात्र रहता है। इसलिए उन्हें भी उपाधि रूपं नहीं माना गया है, क्योंकि आयु कर्म के साथ उनका भी क्षय करके सिद्ध पद को प्राप्त कर लेते हैं । इस प्रकार द्रव्य एवं भाव उपाधि संसार - परिभ्रमण का कारण है और उसका परित्याग संसार-नाश का कारण है । इसलिए साधक को द्रव्य एवं भाव उपाधि से निवृत्त होने का प्रयत्न करना चाहिए । यही प्रस्तुत अध्ययन का सार है । 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें । चतुर्थ उद्देशक समाप्त ॥ तृतीय अध्ययन-शीतोष्णीय समाप्त ॥ 1. उपाधिः विशेषणं, उपाधीयत इति वोपाधिः, द्रव्यतो हिरण्यादिर्भावतोऽष्ट प्रकारं कम्मं । - आचारांग वृत्ति
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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