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तृतीय अध्ययन, उद्देशक 4
· इसलिए कहा गया है कि मोक्षाभिलाषी साधक श्रद्धानिष्ठ होकर संयम मार्ग पर चलता है और भगवान की आज्ञा के अनुसार साधना में प्रवृत्त होता है । अथवा छह काय या कषाय रूप लोक एवं उसके आरम्भ - समारम्भ तथा कषाय- सेवन से बढ़ने वाले संसार परिभ्रमण को जानकर किसी भी जीव को त्रास एवं भय नहीं देता । वह प्रत्येक प्राणी को अपनी आत्मा के समान जानता है। अतः दूसरे प्राणी को कष्ट देना अपनी आत्मा को कष्ट देना है, ऐसा जानकर वह सब को अभयदान देता है ।
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वस्तुतः भय संयम का शस्त्र है । असंयम सबसे भयंकर शस्त्र है, क्योंकि असंयत जीवन में एकरूपता नहीं रहती । अपने स्वार्थ की प्रमुखता के कारण दूसरे जीवों पर समदृष्टि नहीं रहती। इसलिए असंयत जीव अपने स्वार्थ को साधने के लिए द्रव्य एवं भाव शस्त्रों को तीक्ष्ण बनाता रहता है । अस्थि - शस्त्र के युग से लेकर अणुबम एवं हाईड्रोजन बम तक का इतिहास असंयम की विषाक्त भावना का परिणाम है। इसी प्रकार क्रोध, मान, माया, लोभ एवं राग-द्वेष आदि भाव शस्त्रों में तीव्रता आती रहती है। परन्तुं संयम अशस्त्र है, उसमें द्रव्य एवं भाव दोनों प्रकार के शस्त्रों का अभाव है। साधक समभाव की दृष्टि लेकर आगे बढ़ता है। इसलिए उसमें तरतमता नहीं पाई जाती है। वह शस्त्र से दूर रहता हुआ सदा आगे बढ़ता रहता है। उसकी साधना की पूर्णता चौदहवें गुणस्थान में होती है। फिर उसे संयम की भी आवश्यकता नहीं रहती; . क्योंकि साधना की उपयोगिता साध्य के प्राप्त होने तक ही है, उसके प्राप्त हो जाने . के बाद उसकी आवश्यकता नहीं रह जाती है । इस प्रकार संयम-निष्ठ साधक श्रेणी-विकास करता हुआ अपने साध्य को सिद्ध कर लेता है।
• साधक कषाय के यथार्थ स्वरूप को जानता है । जिस प्रकार वह क्रोध के स्वरूप एवं परिणाम से परिचित है, उसी प्रकार मान एवं अन्य कषायों के स्वरूप से भी परिचित है। इसी बात को बताते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - जे कोहदंसी से माणदंसी, जे माणदंसी से मायादंसी, जे मायादंसी से लोभदंसी, जे लोभदंसी से पिज्जदंसी, जे पिज्जदंसी से दोसदंसी, जे दोसदंसी से मोहदंसी, जे मोहदंसी से गब्भदसी, जे गब्मदंसी से जम्मदंसी, जे जम्मदंसी से मारदंसी, जे मारदंसी से नरयदंसी, जे नरयदंसी से तिरियदंसी, जे तिरियदंसी से दुक्खदंसी ।